________________ .99 अरस्तु के अनुसार-पहले और पीछे की अपेक्षा से वस्तु में होने वाले परिवर्तन के माप को काल कहते हैं।289 सेंट ऑगस्टाईन के अनुसार काल ज्ञाता सापेक्ष तत्त्व है।290 लाइबनीज ने काल को आकाश की तरह सापेक्ष माना है।। इस प्रकार काल विषयक मान्यता कहीं-कहीं अन्य दर्शनकारों की और जैनदर्शन की भी मिलती है। जैसे कि सांख्यकारिक माठरप्रवृत्ति,292 सन्मतितर्कटीका,293 गोम्मटसार कर्मकाण्ड,294 माध्यामिक वृत्ति,295 चतुशताकम्,296 मैत्र्याव्युपनिषद् वायव्यदोष, नन्दीसूत्र मलयगिरि टीका298 आदि काल द्रव्य के विषय में, इस प्रकार श्वेताम्बर, दिगम्बर परम्परा, वैज्ञानिक क्षेत्र, भारतीय दर्शन, पाश्चात्य दार्शनिकों, वैज्ञानिकों में पर्याप्त विचार भिन्नता पाई जाती है। फिर भी सभी ने काल, द्रव्य की किसी-न-किसी रूप में अनिवार्यता स्वीकार की है। काल की मौलिक द्रव्यता ने पूर्व-पश्चिम के अनेक अनुसंधित्सुकों का ध्यान आकर्षित किया है। आधुनिक विज्ञान समय को एक निर्देश यंत्र मानता है। प्रत्येक घटना समय और क्षेत्र से संबंधित होती है। इस प्रकार काल विषयक चर्चा बौद्ध दर्शन में विस्तार से दी गई है। पर यहाँ इतना जानना ही आवश्यक होने से विस्तार को विराम देते हैं। जैन की काल संबंधी मान्यता एक सूक्ष्मगम्य है। उपाध्याय यशोविजय ने काल-विषयक विवेचन बहुत ही विवेकपूर्ण एवं वैशिष्ट्य से युक्त किया है। नवतत्त्व विचार ___ अस्तित्व की दृष्टि से जो मूल वस्तु या पदार्थ है, वह तत्त्व है, जिसे हम सत् कहते हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ है-तत्व पारमार्थिक वस्तु जो परमार्थ यानी मोक्ष की प्राप्ति में साधक या बाधक बनता है, वह पारमार्थिक पदार्थ तत्त्व है। मोक्ष की साधना करने वाला साधक व्यक्ति अजीव, पुण्य, पाप, .. बंध, जीव और आश्रय-इन छह से युक्त होकर मोक्ष तत्त्व तक पहुंचता है, जिसमें संवर और निर्जरा उसका साधन मार्ग है। जैन शासन में सर्वज्ञ भगवंत जब मोक्षमार्ग की प्ररूपणा करते हैं, तब यह आवश्यक हो जाता है कि मोक्षपद पर समारूढ़ होने वाले मुमुक्षुओं को उन साधनों का जानना, क्योंकि साधनों के जाने बिना साध्य की संप्राप्ति संभव नहीं है। अतः उन जीवों के हित के लिए नवतत्त्व का प्रतिपादन करते हैं। जैन दर्शन में तत्त्व को विस्तार से समझने के लिए दो पद्धतियाँ काम में ली गई हैं-जागतिक और आत्मिक। जहाँ जागतिक विवेचन की प्रमुखता है, वहाँ 6 द्रव्यों की चर्चा है और जहाँ आत्मिक तत्त्व प्रमुख है, वहाँ नवतत्त्व का विवेचन उपलब्ध होता है। __जैन वाङ्मय के कल्पतरु समान द्वादशांगी के दूसरे सूत्रकृतांग तथा तीसरे अंग ठाणांग में स्वयं गणधर भगवंत उनकी रचना करते हैं, जिससे उसकी उपादेयता और बढ़ जाती है। जैन शासन में मोक्ष मुख्य साध्य है ही अतः उसको तथा उसके कारणों को जाने बिना मुमुक्षुओं की मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति अशक्य है। इसी प्रकार यदि मुमुक्षु मोक्ष के विरोधी (बन्ध और आश्रव) तत्त्वों और उनके कारणों का स्वरूप न जाने तो भी वह अपने पथ पर अस्खलित प्रवृत्ति नहीं कर सकता है। मुमुक्षु को सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक हो जाता है कि मेरा शुद्ध स्वरूप क्या है? और उस प्रकार की ज्ञान की सम्पूर्ति के लिए जैन वाङ्मय में तत्त्वों की विचारणा विस्तृत रूप से विवेचित की गई है। 169 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org