Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ आचार्य हरिभद्रसूरि ने ध्यानशतक हरिभद्रीयवृत्ति में जीव का स्वरूप इस प्रकार उल्लिखित किया है ज्ञानात्मा सर्व भावज्ञो भोक्ता कर्ता च कर्मणाम् नानासंसादि मुक्ताख्यो जीव प्रोकता जिनागमे।239 जीव ज्ञान स्वरूप है, सर्वभावों का ज्ञाता है। कर्म का भोक्ता व कर्ता है, भिन्न-भिन्न अनेक जीव संसारी और मुक्त रूप में हैं, ऐसा जिनागमों में कहा है। पंचास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द ने पारिणामिक भाव से जीव को अनादि निधन बताया है, जैसे कि-जीव पारिणामिकभाव से अनादि निधन, औदायिक, औपशमिक, क्षयोपशमिक भाव से सादिनिधन, क्षायिकभाव से सादि अनन्त है। वह जीव पाँच मुख्य गुणों की प्रधानता वाला है। जीव को कर्म कर्तव्य भोक्तृत्व संयुक्त्व आदि भी बताया गया है।40 उत्तराध्ययन सूत्र में जीव का लक्षण इस प्रकार बताया गया है जीवो उवओगलक्खणो नाणेणं दंसणेणं च सुहेणं च दुहेण या उवयोग चेतना व्यापार जीव का लक्षण है, जो ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख से पहचाना जाता है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ध्यानशतक में जीव का लक्षण एवं स्वरूप इस प्रकार बताया है अवओग लक्खणाइणिहणमत्थंतरं सरीराओ। जीवमरूवि कारि भोयं च सयस्स कम्मस्स।। आत्मा उपयोग लक्षण वाला है। अनादि-अनन्त शरीर से भिन्न स्वयं कर्मों का कर्ता और स्वयं के किये हुए कर्मों का भोक्ता है। उपाध्याय यशोविजय ने द्रव्य, गुण, पर्याय रास में जीव का स्वरूप इस प्रकार बताया है-जीव द्रव्य, परिणामी, अमूर्त, सप्रदेश, अनेक क्षेत्री, सक्रिय, अनित्य, अकारण, कर्ता, असर्वगत, अप्रवेश आदि गुणों के साधर्म्य, विधर्म्य से युक्त है। जीव का स्वरूप षड्दर्शन समुच्चय की टीका में इस प्रकार समुल्लिखित किया है-जीव चेतन है, कर्ता है, भोक्ता है, प्रमाता है, प्रमेय है, असंख्य प्रदेश वाला है। इसके मध्य आठ प्रदेश हैं, भव्य हैं, अभव्य हैं, परिणामी परिवर्तनशील हैं। अपने शरीर के बराबर ही परिणाम वाला है। अतः आत्मा में ये सब अनेक सहभावी एक साथ रहने वाले धर्म पाये जाते हैं तथा हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, मति आदि ज्ञान, चक्षुदर्शन आदि दर्शन चार गति, अनादि-अनन्त होना, सब जीवों से सब प्रकार से संबंध रखना, संसारी होना, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, ग्लानि आदि भावों का सद्भाव स्त्री, पुरुष और नपुंसकों के समान कामी प्रवृत्ति, मूर्खता तथा अंधा, लूला, लंगड़ा आदि क्रम से होने वाले भी अनेक धर्म संसारी जीव में पाये जाते हैं। इसी प्रकार जीव का ज्ञान और उपयोग रूप लक्षण प्रज्ञापना टीका,15 आचारांग टीका,46 उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति,7 पंचास्तिकाय,248 अनुयोगवृत्ति,19 नवतत्त्व आदि में भी मिलता है। इस प्रकार जीव प्रदेशों के समूह को जीवास्तिकाय कहते हैं। भगवती में गणधर गौतम स्वामी भगवान महावीर से पूछते हैं कि भगवान जीवास्तिकाय के द्वारा जीवों की क्या प्रवृत्ति है? 163 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org