Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ अतः हम संक्षेप में कह सकते हैं कि जीव को अपने जीवन की विभिन्न प्रवृत्तियों को चलाने के लिए विभिन्न रूपों में पुद्गलों को स्वीकार करना पड़ता है। खाना, पीना, चिन्तन करना आदि सभी क्रियाओं में पुद्गलों को अनिवार्य रूप से ग्रहण करता है। जीवास्तिकाय-जैन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। अनन्त ब्रह्माण्ड में अनन्त जीवन बिखरा पड़ा है। प्रत्युत् अनेकता एवं अनन्तता के झरोखे में जब एकत्व दृष्टि से झांकते हैं तो मूल रूप से दो द्रव्य, दो तत्त्व एवं दो पदार्थ के दर्शन होते हैं। जैन दर्शन यथार्थवादी है। उसकी दृष्टि में जीव एवं अजीव दोनों की स्वायत्त स्वतंत्र सत्ता है। न अजीव जीव से उत्पन्न होता है और न जीव अजीव से। विश्व संरचना के मूलभूत घटकों में जीवद्रव्य का स्थान सर्वोपरि है। ग्रहमालाओं में सूर्य केन्द्रिय स्थानीय है। वैसे ही पदार्थ जगत् में जीव पदार्थ शीर्षस्थ स्थानीय है। अन्य तद्भाव पदार्थ जीव की उन्नति एवं अवनति दर्शन अवस्थाएँ हैं। षड्द्रव्य, नव तत्त्व एवं नौ पदार्थ का ज्ञाता एवं द्रष्टा जीव ही है। जीव, अन्य द्रव्य तत्त्व से प्रभावित है तथा अन्य द्रव्य, तत्त्व जीव से प्रभावित हैं। इस प्रकार जीव शब्द के विषय में अनेक प्रकार की मान्यताएँ सभी दर्शनों में मिलती हैं। लेकिन यहाँ जीवास्तिकाय को ही विशेष रूप से स्पष्ट करेंगे। जीवास्तिकाय अर्थात् जीवन्ति जीवियन्ति जीवितवन्त इति जीवाः तो च तेऽस्ति-कायात्वेति समासः प्रत्येकम् संख्येयप्रदेशात्मक सकललोकभाविनानाजीव द्रव्य समूह इत्यर्थ / / जो जीते हैं, जियेंगे और जीवित मिल रहे हैं, वे जीव हैं, वे कायवान हैं। प्रत्येक असंख्यात प्रदेशात्मक सम्पूर्ण लोक में रहे हुए विविध जीवद्रव्य का समूह जीवास्तिकाय कहलाता है। पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में दिगम्वराचार्य जयसेनसूरि ने जीव को शुद्ध निश्चय से विशुद्ध ज्ञान, दर्शन, स्वभाव, रूप, चैतन्य, प्राण शब्द कहा है, जो प्राणों से जीता है, वह जीव है। व्यवहार नय से - कर्मोदयजनित द्रव्य और भावरूप चार प्राणों से जीता है, जीयेगा और पूर्व में जीता था, वह जीव है। धर्मसंग्रहणी की टीका में आचार्य मलयगिरी ने इस प्रकार निर्दिष्ट किया है-जो जीता है, प्राणों को धारण करता है, वह जीव है। प्राण दो प्रकार के हैं-द्रव्य प्राण और भाव प्राण। द्रव्य प्राण-इन्द्रियादि पाँच, तीन बल। उच्छवास और आयुष्य-ये दस द्रव्यप्राण भगवान ने कहे हैं तथा भाव प्राण-ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं। प्रज्ञापना की टीका में जीव की यही व्याख्या मिलती है। उपाध्याय यशोविजय ने न्यायालोक में जीव का वर्णन करते हुए कहा है कि चेतनागुणो जीवः स चोक्तस्वरूप एव।25 जीव का लक्षण है-चेतना। चेतना का अर्थ है-उपयोग। चेतना गुण स्वप्रकाशात्मक ही है। वह ज्ञान, दर्शन स्वरूप 12 भेद से प्रसिद्ध है-अष्टविधि ज्ञान चतुर्विधदर्शनात्मकोपयोगलक्षणो जीव36–तदुकंत तत्वार्थसूत्रेऽपि उपयोग लक्षणो जीवः। नवतत्त्व प्रकरण में भी कहा है कि नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहां, विरियं उवओगे य एयं जीवस्स लक्खणं। 238 162 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org