Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ प्रत्युत्तर में भगवान कहते हैं-गौतम! जीवास्तिकाय आभिनिबोधिक ज्ञान की अनन्त पर्यायें, श्रुतज्ञान की अनन्त पर्यायें प्राप्त करता है। जीवास्तिकाय में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श नहीं है। वह अरूपी है, जीव है, शाश्वत है और अवस्थित लोकद्रव्य है। वह ज्ञान, दर्शन, उपयोग को प्राप्त करता है। जीव का लक्षण उपयोग है। संक्षेप में वह पाँच प्रकार का हैद्रव्य की दृष्टि से-जीवास्तिकाय अनन्त जीव द्रव्य रूप है। क्षेत्र की दृष्टि से-लोकव्यापी है। काल की दृष्टि से-नित्य है। भाव की दृष्टि से-अरूपी यानी अमूर्त है। गुण की दृष्टि से-उपयोग गुण वाला है। ___ये पाँच भेद स्थानांग में भी बताये गये हैं। .. जीव का उपयोग-यह आभ्यंतर, असाधारण लक्षण कथित करने के पश्चात् जीव का बाह्य लक्षण तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति म.सा. सूत्र द्वारा बताते हैं-परस्परोपग्रहो जीवानाम् / जीवों का अन्योन्य को अर्थात् एक-दूसरे के लिए हित-अहित का उपदेश देने द्वारा उपकार होता है, क्योंकि उपदेश के द्वारा हिताहित प्रवृत्ति जीवों में होती है। जीवों के भेद-जीवों के भेद को अलग-अलग दृष्टिकोण से बताया है। एकविध जीव-चेतना गुण की अपेक्षा से जीव का भेद एक है। द्विविध जीव जीव संसारी मुक्त त्रस स्थावर - वेद की अपेक्षा से तीन भेद जीव स्त्रीवेद पुरुषवेद नपुंसकवेद चार गति की अपेक्षा से चार भेद जीव नारक मनुष्य तिर्यंच 164 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org