________________ शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया और आतप तथा वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये पुद्गल के लक्षण हैं। वाचक उमास्वातिकृत तत्त्वार्थ सूत्र में, नवतत्त्व में, षड्दर्शन समुच्चय की टीका में तथा प्रशमरति15 में इसके सिवाय संसारी जीवों के कर्म, शरीर, मन, वचन, क्रिया, श्वास, उच्छ्वास, सुख, दुःख देने वाले स्कन्ध पुद्गल हैं। जीवन और मरण में सहायक स्कंध हैं अर्थात् ये सब पुद्गल के उपकार यानी कार्य हैं। ध्यानशतक की वृति में आचार्य हरिभद्र ने पुद्गल का स्वरूप इसी प्रकार प्रस्तुत किया है स्पर्शरसगन्ध वर्ण शब्दमूर्त स्वभाव का संघात भेद निष्पन्ना, पुद्गला जिनदेशिता। पुद्गल स्पर्श, रस, गंध, वर्ण शब्द स्वभाव वाला और इसी से मूर्त स्वभाव वाला तथा संयोजन और विभाजन से उत्पन्न होने वाला है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। विश्व की विभिन्न शक्तियों और ब्रह्माण्ड के विभिन्न विकिरण अलग, बीटा, गामा, प्रकाश, ताप, विभिन्न तरंग, चुम्बकीय शक्तियाँ, उनका स्वीकरण संलयन ऐसे ही उनका उत्सर्जन एवं अवशोषण की प्रक्रिया पुद्गल द्रव्य में संभावित है। संगलन एवं विगलन की प्रक्रिया ही अणुबम के निर्माण की बुनियाद रही है। पुद्गल शब्द के दो अवयव हैं-पुद्+गल।" पुद् का अर्थ है-मिलना, पूरा होना, जुड़ना; गल का अर्थ है-गलना, मिटना अर्थात् जो द्रव्य प्रति समय मिलता रहे, गलता रहे, झरण होता रहे, टूटता एवं जुड़ता रहे, वह पुद्गल है। सम्पूर्ण लोक में पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है, जो खंडित भी होता है और परस्पर पुनः संगोपित होता है। इनके सन्दर्भ में ही पुद्गल की व्युत्पत्तिलभ्य परिभाषा जैन सिद्धान्त दीपिका में आचार्य तुलसी ने बताई है पूरणगलन धर्मत्वात् पुद्गल इति / जिसमें पूरण एकीभाव और गलन पृथक्भाव दोनों होते हैं, वह पुद्गल है। , पुद्गल की गुणात्मक परिभाषा इस रूप में मिलती है कि जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण-ये चारों अनिवार्यतः पाए जाएँ, वह पुद्गल है। प्रत्येक द्रव्य, गुण एवं पर्याय से युक्त हैं। आचार्य तुलसी ने भी जैन सिद्धान्त दीपिका में गुणात्मक परिभाषा देते हुए कहा है स्पर्शरसगंधवर्णवान् पुद्गल / / पुद्गल की स्वरूपात्मक व्याख्या पुद्गलास्तिकाय का भगवती में इस प्रकार स्वरूप निर्दिष्ट किया है हे गौतम! पुद्गलास्तिकाय में पाँच रंग, पाँच रस, आठ स्पर्श, दो गंध, रूपी, अजीव, शाश्वत और अवस्थित लोकद्रव्य हैं। संक्षेप में उसके पाँच प्रकार हैं, जैसे द्रव्य की अपेक्षा-पुद्गल अनन्त द्रव्य है। क्षेत्र की अपेक्षा-पुद्गल द्रव्य लोकव्यापी है। 159 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org