________________ वैज्ञानिक न्यूटन का आकाश संबंधी निरूपण निरपेक्ष आकाश को लेकर हुआ है, जो बाह्य वस्तु की अपेक्षा बिना सदा एकरूप एवं स्थिर रहता है। आकाश एक अगतिशील आधार है, जो असीम है, विस्तृत है। इसके अतिरिक्त अनुभव ग्राह्य आकाश एवं धारणात्मक आकाश, जिसके प्रतिपादक बर्टेण्ड रसेल रहे हैं। इसके अलावा आकाश संबंधी अवधारणाएँ, जैसे-गणितीय आकाश, अभौतिक आकाश, भौतिक आकाश, विश्व आकाश, अनन्त आकाश, अवगाहित आकाश, अनवगाहित आकाश, सापेक्ष एवं निरपेक्ष आकाश आदि कई विचारधाराएँ अस्तित्व में आईं। आकाश संबंधी प्रत्येक मान्यता एवं प्रत्येक प्रतिपादन में विरोधाभास के दर्शन होते हैं। आकाश संबंधी प्रचलित विविध विचारधाराओं से स्पष्ट होता है कि सभी द्रव्यों में आकाश द्रव्य विस्तृत एवं व्यापक है। इस सान्त, ससीम और अनन्त असीम आकाश से संबंधित मान्यताओं का जैन दर्शन में प्रतिपादित, लोकाकाश एवं अलोकाकाश में समावेश होता है। जैन दर्शन जिसे लोकाकाश कहते हैं, वह शुद्ध आकाश है। आकाश भी उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य से युक्त है, क्योंकि वह द्रव्य है। आकाश द्रव्य रूप से नित्य, पर्याय रूप से सदा परिवर्तित है। वह अमूर्त द्रव्य है अतः उसके गुण पर्याय भी अमूर्त हैं। आकाश सब द्रव्यों को अवकाश देता है, परन्तु उन-उन द्रव्यों में कदापि परिवर्तित नहीं होता, न कभी हुआ है और न कभी होगा। भगवती198 और स्थानांग में आकाशास्तिकाय का स्वरूप, आकाशास्तिकाय-अवर्ण, अगंध, अरस, अस्पर्श, अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित और लोकालोक रूप द्रव्य है। वह संक्षेप में पाँच प्रकार का कहा गया है, जैसेद्रव्य की दृष्टि से-आकाश एक और अखण्ड द्रव्य है, जिसकी रचना में सातत्य है। - क्षेत्र की दृष्टि से-आकाश लोकालोक प्रमाण है अर्थात् असीम और अनन्त विस्तार वाला है। यह सर्वव्यापी है और इसके प्रदेशों की संख्या अनन्त है। काल की दृष्टि से-आकाश ध्रुव निश्चित, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित, अनादि, अनन्त और नित्य है। भाव की दृष्टि से-आकाश अमूर्त, अभौतिक, अचेतन, अशाश्वत, अगतिशील है। गुण की दृष्टि से-आकाशास्तिकाय अवगाहना गुण वाला है। अन्य द्रव्यों को आश्रय प्रदान करता है। इस प्रकार आकाश का वास्तविक स्वरूप तो अवगाह रूप है, जो जैनाचार्यों की अनुत्तर व्याख्या है। पुद्गलास्तिकाय-जैन दर्शन में जीव द्रव्य के, प्रति पदार्थ के रूप में पुद्गल द्रव्य की अवधारणा आती है। वर्तमान में विश्व विख्यात प्रयोगशालाओं से लेकर मजदूर एवं किसान की कुटिया तक पुद्गल परमाणु की चर्चा पहुंच चुकी है। भौतिक तथा रसायनशास्त्र के अंतर्गत द्रव्य एवं पर्याय स्वरूप परमाणु की अनश्वरता, ध्वनि, श्रवण, सीमा, वायु, अग्नि, प्रकाश, आयतन घनत्व कृत्रिम मेघ रचना, संवेदना, इन्द्रियों के विषय-विकार आदि सभी बातें पुद्गल से संबंधित रही हैं। हमारे दृश्य जगत् की सारी लीला का मूल सूत्रधार है-पुद्गलद्रव्य। जैन दर्शन में पुद्गलद्रव्य के विषय में जो गम्भीर एवं विस्तृत विश्लेषण उपलब्ध है, वह न केवल दर्शन के विद्यार्थी के लिए अनिवार्यतः 157 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org