________________ प्रज्ञापना टीका में-मर्यादित होकर स्व-स्वभाव का परित्याग किये बिना जो प्रकाशित होते हैं तथा सभी पदार्थ व्यवस्थित स्वरूप से प्रतिभासित होते हैं, वह आकाश है। उपाध्याय यशोविजय आकाश की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहते हैं अवगाहनागुणमाकाशम्।" आकाश का गुण अवगाहन है अर्थात् अवगाहना गुण का आश्रय स्वरूप आकाश द्रव्य की सिद्धि होती है। आचार्यश्री हरिभद्रसूरि दशवकालिक की टीका में आकाश की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि-आकाशन्ते दीप्यन्ते स्वधर्मोपेता आत्मादयो यत्र तस्मिन् स आकाश।।78 अपने धर्म से युक्त आत्मादि जहाँ प्रकाशित होते हैं, वह आकाश है। आचार्यश्री तुलसी ने जैन सिद्धान्त दीपिका में आकाश का लक्षण बताते हुए आकाश की परिभाषा दी है अवागाह लक्षणः आकाश। अवगाहः अवकाश आश्रय से एव लक्षणं यस्य स आकाशास्तिकाय। अवगाह देने वाले द्रव्य को आकाश कहते हैं। अवगाह का अर्थ है अवकाश या आश्रय। आश्रय अवगाह लक्षण वाला है। भगवती सूत्र में इसी बात को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है-अवगाह लकखणेणं अगासत्थिकायं / 180 तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा है कि-आकाशस्यावगाहः। जो अवकाश देता है, वह आकाश द्रव्य है और यही आकाश द्रव्य का उपकार है। इसका संवादी प्रमाण उत्तराध्ययन सूत्र में भी मिलता है। भायणं सव्वदव्वाणं नहं ओगोहालक्खणं। सभी द्रव्यों का भाजन (आधार) आकाश है। वह अवगाह लक्षण वाला है। स्थानांग,185 स्थानांगवृत्ति, न्यायालोक,185 अनुयोगमलधारियवृत्ति,186 उत्तराध्ययन बृहवृत्ति,17 जीवाभिगम मलयगिरीयावृत्ति,188 लोक प्रकाश,180 षड्द्रव्यविचार190-इन सूत्रों में तथा टीका में आकाश के आधार एवं आकाश के अवगाह गुण को बताया गया है। आकाश द्रव्य के विषय में संबंधित एक परिसंवाद में तीर्थंकर महावीर से गणधर गौतम ने प्रश्न किया-भंते! आकाश द्रव्य से जीव एवं अजीव को क्या लाभ होता है? अर्थात् किस रूप में आकाश द्रव्य अन्य द्रव्यों का उपकारी कारण है? गौतम! आकाशद्रव्य जीव एवं अजीव के लिए भाजनभूत है। आकाश द्रव्य नहीं होता तो अन्य द्रव्यों का अवस्थान कहाँ होता? पुद्गल द्रव्यों की विचित्रताएँ किस रंगमंच पर अपना अभिनय व्यक्त करती? विश्व भी आकाश द्रव्य के अभाव में आश्रयहीन होता। आकाश ही वास्तविक सत् है। अस्तित्व आदि सामान्य गुणों से युक्त हैं। अन्य दार्शनिक विचारधाराओं में-आकाश स्वरूप वेदान्ता में आकाश को स्वतंत्र तत्त्व नहीं माना है अपितु परम ब्रह्म का विवर्त माना है। सांख्य दर्शन प्रवृत्ति को उसका आदि-कारण मानता है। यह प्रकृति का विकार है। कणाद महर्षि ने दिक् 155 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org