Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ कार्य कारणवाद के अनुसार प्रत्येक कार्य के लिए दो प्रकार के कारण आवश्यक है-उपादान और निमित्त। उपादान कारण वह है, जो स्वयं कार्यरूप में परिणत हो जाए तथा निमित्त कारण वह है, जो कार्य के निष्पन्न होने में सहायक हो। यदि पृथ्वी, जल आदि स्थिर द्रव्यों को निमित्त कारण के रूप में माना जाता है तो भी यह युक्त नहीं होता है, क्योंकि ये पदार्थ समस्त लोकव्यापी नहीं हैं। यह आवश्यक है कि गति माध्यम के रूप में जिस पदार्थ को माना जाता है, वह सर्वव्यापी हो। इसी प्रकार किसी ऐसे द्रव्य की . कल्पना करनी पड़ती है, जो स्वयं गतिशून्य हो, समस्त लोक में व्याप्त हो, अलोक में न हो। दूसरे पदार्थों की गति में सहायक है, ऐसा द्रव्य धर्मास्तिकाय ही है। यह बात निम्न श्लोक के . माध्यम से पाई जाती है धर्माधर्मविभुत्वात् सर्वत्र च जीवपुद्गलविचारात्। नालोकः कश्चिन् स्यान्न च समस्तभेदणाम् / / तस्माद् धर्माधर्मा अवगाढो व्याप्य लोकखं सर्वम्। एवं हि परिच्छिन्नः सिद्धयति लोकस्तद् विभुत्वात् / / लोक-अलोक की व्यवस्था पर दृष्टि डालें तब भी इसके अस्तित्व की जानकारी मिलती है। आचार्य मलयगिरी ने इसका अस्तित्व सिद्ध करते हुए लिखा है-इन दो द्रव्यों के बिना लोक-अलोक की व्यवस्था नहीं होती है। लोक है इसमें कोई संदेह नहीं, क्योंकि यह इन्द्रिय गोचर है। अलोक इन्द्रियातीत है, इसलिए . . . उसके अस्तित्व-नास्तित्व का प्रश्न उठता है। किन्तु लोक का अस्तित्व मानने पर अलोक का अस्तित्व अपने आप मान्य हो जाता है। तर्कशास्त्र का नियम है कि जिसका वाचक पर व्युत्यपत्तिमान और शुद्ध होता है, वह पदार्थ सत् प्रतिपक्ष होता है, जैसे-अघट घट का प्रतिपक्षी है। इसी प्रकार जो लोक का विपक्ष है, वह अलोक है। धर्म और अधर्म को लोक और अलोक का परिच्छेद मानना युक्तियुक्त है। यदि ऐसा न हो तो . उनके विभाग का आधार ही क्या बने? तम्हा धम्माधम्मा लोगपरिच्छेयकारिणो जुता। इयस्हागासे तुल्ले, लोगालोगेस्ति को भेओ।।" ये धर्म और अधर्म द्रव्य पुण्य और पाप के पर्यायवाची नहीं हैं, स्वतंत्र द्रव्य हैं। इनके असंख्यात प्रदेश हैं अतः बहुप्रदेश होने के कारण इन्हें अतिस्तकाय कहते हैं और इसलिए इनका धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय रूप में निर्देश होता है। इनका सदा शुद्ध परिणमन होता है। द्रव्य के मूल परिणामी स्वभाव के अनुसार पूर्व पर्याय को छोड़ने और नई पर्यायों को धारण करने का क्रम अपने प्रवाही अस्तित्व को बनाये रखते हुए अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चालू रहेगा। इस प्रकार धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय गति स्थिति निमित्तक और लोक-अलोक विभाजक द्रव्यों के रूप में स्वीकार किये गए हैं। संक्षेप में कह सकते हैं कि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय-इन छः द्रव्यों से बना हुआ यह लोक सीमित है। इस लोक से परे आकाश द्रव्य का अनन्त 153 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org