________________ तथा सुवर्ण का धौव्य है और इसी प्रकार प्रथम बालक रूदन करता है, दूसरा बालक आनन्द से झूम उठता है और उसके पिताश्री माध्यस्थ तटस्थ भाव में रहते हैं। सन्त आनन्दघन ने भी अपनी ग्रन्थावली में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के आधार पर आत्मा को नित्यानित्य प्रतिपादित किया है अवधू नटनागर की बाजी, जाणै न बांभण काजी। थिरता एक समय में ठान, उपजे विनसे तब ही। उलट पुलट ध्रुव सता राखै या हम सुनी नहीं कबही। एक अनेक अनेक एक फुनि कुंडल कनक सुभावै। जल तरंग घट माटी रविकर, अगिनत ताई समावै।।5। संत आनन्दघन कहते हैं कि आत्मा का स्वरूप बड़ा ही विचित्र है। उसकी थाह पाना अत्यन्त दुष्कर है। यह आत्मा एक ही समय में नाश होता है। पुनः उसी समय में उत्पन्न होता है। उसी समय में अपने ध्रौव्य स्वरूप में स्थित रहता है। आत्मा में उत्पाद, व्यय रूप परिवर्तन होते रहते हैं, फिर भी वह अपना ध्रौव्य सत्ता स्वरूप नित्य परिणाम को नहीं छोड़ता है। जैसे स्वर्ण के कटक, कुंडल, हार आदि अनेक रूप बनते हैं तब भी वह स्वर्ण ही रहता है इसी प्रकार देव, नारक, तिर्यंच एवं मनुष्य गतियों में भ्रमण करते हुए जीव के विविध पर्याय बदलते हैं। रूप और नाम भी बदलते हैं लेकिन नानाविध पर्यायों में आत्मद्रव्य सदा एक-सा रहता है। इसी बात को आनन्दघनजी और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जलतरंग में भी जैसे पूर्व तरंग का व्यय होता है और नवीन तरंग का उत्पाद होता है किन्तु जलत्व दोनों में ध्रुव रूप से लक्षित होता है। मिट्टी के घड़े के आकार रूप में उत्पाद होता है, टूटने पर घड़े का व्यय लेकिन इन दोनों अवस्थाओं में मिट्टी का रूप एक ही प्रतीत होता है। तत्त्वार्थ सूत्र के स्वोपज्ञ भाष्यकार वाचक उमास्वाति महाराज ने भी अपने भाष्य में सत् का लक्षण निरूपण किया है उत्पादव्ययो ध्रौव्यं चैतन्त्रितययुक्तं सतो लक्षणम्। युक्तं समाहितं त्रिस्वभावं सत्। यदुत्पद्यते यदव्यथेति यच्च ध्रुवं तत्सत अतोऽन्यदसदित्ति। ____ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य-इन तीन धर्मों से संयोजित रहना ही सत् का लक्षण है अथवा युक्त शब्द का अर्थ समाहित, समाविष्ट करना अर्थात् सत् का लक्षण त्रिस्वभावात् ही है। जो उत्पन्न होता है, नाश होता है और स्वद्रव्य में हमेशा ध्रुव रहता है, वह सत् है। इससे विपरीत असत्। न्याय विनिश्चय में दिगम्बर आचार्य अकलंक ने गुणों को भी तीन धर्मों से युक्त सिद्ध किया है गुणवदद्रव्यमुत्पाद व्यय ध्रौव्यादयो गुणाः।" गुणों में भी उत्पाद, व्यय और नाश घटित होता है। न्याय विनिश्चय के प्रणेता दिगम्बराचार्य उदभट्ट तार्किक भट्ट अकलंक अपने ग्रंथ में सत् की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं सदोत्पादव्ययंध्रौव्ययुक्त सदसतोगतिः।। तथा प्रत्यक्ष प्रमाण के निगमन में सत् की व्याख्या इस प्रकार है अध्यक्ष लिंङस्सिध्यमनेकान्मकमस्तु सत्।" 125 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org