________________ पर दिया है। * करके वह गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी की सेवा में आया और पाँच प्रकार के अभिगम से श्रमण भगवान महावीर स्वामी की पर्युपासणा करने लगा। भगवान महावीर स्वामी ने-हे मुद्रुक! इस प्रकार सम्बोधित कर कहा-तुमने अन्य तीर्थकों को ठीक उत्तर दिया है। हे मुद्रुक! जो व्यक्ति बिना जाने, बिना देखे और बिना सुने किसी अदृष्ट, अश्रुत, असम्यक्, अविज्ञान अर्थ हेतु और प्रश्न का उत्तर बहुत से मनुष्यों के बीच में कहता है, बताता है, वह अरिहन्तों की अरिहन्त कथित धर्म की, केवलज्ञानियों की और केवलिप्ररूपित धर्म की आशातना करता है। हे मुद्रुक! तुमने अन्यतीर्थिकों को यथार्थ उत्तर दिया है। भगवान की वाणी को सुनकर मुद्रुक श्रमणोपासक अत्यन्त आनन्द-विभोर बन गया और श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करके, न अति दूर एवं न अति समीप पर्युपासना करने लगा। भगवान महावीर ने मुद्रुक श्रावक को एवं परिषद् को मधुर छवि में देशना सुनाई। तत्पश्चात् पर्षदा का विसर्जन हुआ। उस मुद्रुक श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान महावीर से धर्मोपदेश सुना, प्रश्न पूछे, अर्थ जाने और खड़े होकर भगवान को वंदन करके लौट गया।" , इस प्रकार मुद्रुक श्रावक भगवान महावीर का ज्ञानवान, प्रज्ञावान, श्रद्धावान श्रावक था तथा ज्ञान के बल पर अन्य दर्शनियों के हृदय में भी तत्त्व की श्रद्धा का स्थान स्थिर करवा दिया। अतः अस्तिकाय भगवान महावीर की अद्भुत अनुपम देन है तथा जिससे सम्पूर्ण लोक की संरचना व्यवस्थित बनती है और इसलिए भगवान ने कहा कि यह लोक भी पंचास्तिकायरूप है। ___ आधुनिक युग में विज्ञान ने अत्यधिक प्रगति की है। उसकी अपूर्व प्रगति विज्ञों को चमत्कृत कर रही है। विज्ञान ने भी दिक्, काल और पुद्गल-इन तीन तत्त्वों को विश्व का मूल आधार माना है। इन तीनों तत्त्वों के बिना विश्व की संरचना सम्भव नहीं है। आइन्सटाईन ने सापेक्षवाद के द्वारा यह सिद्ध . करने का प्रयास किया है कि दिक् और काल-ये गति-सापेक्ष हैं। गति सहायक द्रव्य जिसे धर्म द्रव्य कहा गया है, विज्ञान ने इसे ईथर कहा है। आधुनिक अनुसंधान के पश्चात् ईथर का स्वरूप भी बहुत कुछ परिवर्तित हो चुका है। अब ईथर भौतिक नहीं, अभौतिक तत्त्व बन गया है, जो धर्मद्रव्य की अवधारणा के अत्यधिक सन्निकट है। पुद्गल जो विश्व का मूल आधार है, भले ही वैज्ञानिक उसे स्वतंत्र द्रव्य न मानते हों, किन्तु वैज्ञानिक धीरे-धीरे नित्य नूतन अन्वेषण कर रहे हैं। संभव है कि निकट भविष्य में पुद्गल और जीव का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य करे। .. . इस प्रकार अस्तिकाय द्रव्य आज सर्वमान्य हो गया है। निष्कर्ष रूप में उपाध्याय यशोविजय ने द्रव्य, गुण, पर्याय, रस, न्यायालोक, अनेकान्त व्यवस्था आदि ग्रंथों में अस्तिकाय विषयक जो विवेचन दिया है, वह विवेचन मान्य है और स्पष्ट है। वह सभी दृष्टि से चित्रित करने योग्य है। इन टीकाओं तथा वृत्तियों में अस्तिकाय का अर्थ प्रदशों का समूह ही स्वीकार किया गया है। धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय धर्म द्रव्य एवं अधर्म द्रव्य, विश्व स्थिति के मौलिक पारिभाषिक शब्द हैं। लोक में धर्मअधर्म शब्द शुभाशुभ के अर्थ में भी लिए जाते हैं। यहाँ इसका प्रयोग स्वतंत्र विश्वरचना के मूलभूत द्रव्यों के रूप में हुआ है। 148 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org