Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ असत् कार्यवादी बौद्ध की असत् ऐसी अपूर्व वस्तु उत्पन्न होती यह मान्यता भी बराबर नहीं है, क्योंकि द्रव्य व्यवस्था का यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि किसी असत् का अर्थात् नूतन सत् का उत्पाद नहीं होता और जो वर्तमान सत् है, उसका सर्वथा विनाश ही है। जैसा आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है भावस्स पत्थि णासो पत्थि अभाव चेव उप्पादो। अथवा- एव सदा विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो?" अर्थात् अभाव या असत् का उत्पाद नहीं होता और न भाव सत् का विनाश ही। यही बात गीता में कही है नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत्। आचार्य हरिभद्र सूरि ने शास्त्रवार्ता समुच्चय में सत् के विषय में अन्य दर्शनकार के मत को इस प्रकार प्रस्तुत किया है नासतो विद्यते भावो नाऽभावो विद्यते सत्ः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्व दर्शिभिः।।" स्वरविषाण आदि असत् पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि उत्पत्ति होने पर उसके असत्य का .. व्याघात हो जायेगा। पृथ्वी आदि सत् पदार्थों का अभाव नहीं होता, क्योंकि उनका अभाव होने पर शशृंग . के समान उनका भी असत्व हो जायेगा। परमार्थदर्शी विद्वानों ने असत् और सत् के विषय में यह विनियम - निर्धारित किया है कि जो वस्तु जहाँ उत्पन्न होती है, वहाँ वह पहले भी किसी-न-किसी रूप में सत् होती है और जो वस्तु जहाँ सत् होती है, वहाँ वह किसी रूप में सदैव सत् ही रहती है। वहाँ एकान्ततः उसका नाश यानी अभाव नहीं होता। ___ सत् का सम्पूर्ण नाश एवं असत् की उत्पत्ति का धर्म संग्रहणी टीका में मल्लिसेन सूरि ने भी चर्चा की है। चूंकि सत् को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता यह एक निरपवाद लक्षण है। सत् का लक्षण उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य निश्चित हो जाने पर भी एक संदेह अवश्य रह जाता हैं कि सत् नित्य है या अनित्य, क्योंकि विश्व के चराचर जगत् में कोई द्रव्य सत् रूप में नित्य पाया जाता है तो कोई द्रव्य सत् रूप में अनित्य, जैसे कि सत् रूप में नित्य द्रव्य आकाश है तो सत् रूप में अनित्य द्रव्य घटादिक। अतः संशय उत्पन्न होता है कि सत् को कैसे समझा जाए। जो सत् को नित्यानित्य मान लिया जाये तो पहले जो नित्यावस्थितान्यरूपाणि सूत्र में द्रव्य के नित्य, अवस्थित और अरूप तीन सामान्य स्वरूप कहा है, उस नित्य का क्या अर्थ? इसका समाधान वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में एवं आचार्य हरिभद्रसूरि तत्त्वार्थ की टीका में करते हैं तदभावाव्यम् नित्यम। यहाँ नित्य शब्द का अर्थ भाव अर्थात् परिणमन का अव्यय अविनाश ही नित्य है। सत् भाव से जो नष्ट न हुआ हो और न होगा, उसको नित्य कहते हैं। इस कथन से कूटस्थ नित्यता अथवा सर्वथा अविकारिता का निराकरण हो जाता है तथा कथंचित् अनित्यात्मकता भी सिद्ध हो जाती है। 129 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org