________________ इसी प्रकार आचार्य हरिभद्र सूरि, महोपाध्याय यशोविजय जैसे महामान्य मनीषियों ने इस सत्प्रवाद का तात्विक तथ्य अनुभव कर अपने प्रतिपादनीय प्रकरणों में परिवर्णित किया। वह इस प्रकार है-सम्यक् प्रकार से हम जब पदार्थ के विषय में चिंतन करते हैं तब हमारे सामने वह त्रिधर्मात्मक रूप में प्रगट होता है और जिसके स्वरूप को सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्मा ने अपनी देशना में प्ररूपित किया, जिसका पाठ स्थानांगवृत्ति में इस प्रकार मिलता है उपन्नेइ वा, विगए वा, धुवे वा। . अर्थात् प्रत्येक नवीन पर्याय की अपेक्षा उत्पन्न होता है, पूर्व पर्याय की अपेक्षा नष्ट होता है और द्रव्य की अपेक्षा ध्रुव रहता है। यह मातृका पद कहलाता है। यह सभी नयों का बीजभूत मातृका पद एक है। . अतः उपाध्याय यशोविजयजी ने उत्पादादि सिद्धिनामधेयं (द्वात्रिंशिका) प्रकरण की टीका में कहा है कि-श्रीमद् भगवान पूर्वधर महर्षि उमास्वाति वाचक प्रमुख के द्वारा रचित उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत् सूत्र से सत् का जो लक्षण निरूपित किया है, वह इतिहास के दृष्टिकोण से देखते हैं तो इस सूत्र में निर्दिष्ट लक्षण प्रारम्भिक नहीं है। अर्थात् लक्षण की शुरुआत वाचक उमास्वाति महावीर ने नहीं की, पहले श्रीमद् भगवद् तीर्थंकरों ने लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् श्रीमद् गणधरों के प्रति उप्पज्जेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा-यह त्रिपदी युक्त ही सत्य का लक्षण प्रारम्भिक है और जिसके कारण उपदेशक ऐसे तीर्थंकर की आप्तस्वभावता भी सिद्ध होती है।' आचार्य चंद्रसेन सूरि ने उत्पादादि सिद्ध नामधेयं सूत्र की मूल कारिका में इस लक्षण को लक्षित किया है यस्योत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तवस्तुपदेशतः। सिद्धिमाप्तृ स्वभावत्वं, तस्मै सर्वविदे नमः।। उत्पाद्, व्यय और ध्रौव्य युक्त वस्तु के उपदेश से जिसका आप्त स्वभावपन सिद्ध हो गया है, उस सर्वज्ञ को मेरा नमस्कार हो। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि कृत वीतराग स्तोत्र में सत् का लक्षण इस प्रकार है तेनोत्पादव्ययस्थेयम् सम्भिन्नं गोरसादिवत्। त्वदुपज्ञं कृतधियः प्रपन्ना वस्तुतस्तु सत्।।' हे भगवान! गोरसादि के समान उत्पाद-व्यय-स्थैर्य से सम्मिश्र ऐसा आपके द्वारा प्रतिपादित सत् को बुद्धिमान व्यक्ति वास्तविक (परमार्थ) रूप से स्वीकार करें। वाचक उमास्वाति रचित प्रशमरति सूत्र में भी सत का लक्षण मिलता है। - उत्पाद व्यय पलटंती, ध्रुव शक्ति त्रिपदी संती लाल। योगवेत्ता आचार्य हरिभद्र सूरि योगशतक में सत् के लक्षण को इस प्रकार निरूपित करते हैं चिंतेज्जा मेहम्मी ओहेणं ताव वत्थुणो तंत। उपाय वय ध्रुवजुयं अणुहव श्रुतीए सम्मं त्ति।। आत्मा अनादिकाल से मोहराजा के साम्राज्य में मोहित बना हुआ है, जिससे वह सम्यग् ज्ञान के प्रकाश पुंज को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः आत्मज्ञानी अंधकार को समूल नष्ट करने के लिए जीव-अजीव / 123 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org