________________ तत्त्व मीमांसा सत् का स्वरूप सर्व सिद्ध पुरुषों ने सत् को सत्यता से आत्मसात् किया है। सर्वज्ञों का आत्मसात् विषय सत् सदुपदेश रूप से देशनाओं में दर्शित मिला है, जो दर्शित हो सके। मस्तिष्क एवं मन को मना सके वो सत् है। किसी भी काल में कुण्ठित नहीं बना, ऐसा अकुण्ठित सत् सत्शास्त्रों का विषय बना, विद्वानों का वाक्यालंकार हुआ। सत् आगमकालीन पुरावृत्त का प्राचीनतम एक ऐसा सत्व रहा है, जो प्रत्येक सत्व को सदा प्रिय लगा है। सदा प्रियता से प्रसारित होता है। यह सत् तत्त्व मीमांसकों का तुलाधार न्याय बना है, जिसमें किसी को प्रतिहत करने का न वैचारिक बल रहा है और न आचरित कल्प बना! इन आचार कल्प को और विचार-संकाय को उत्तरोत्तर आगमज्ञ विद्वानों ने श्रमण संस्कृति का शोभनीय तत्त्व दर्शन रूप में समाख्यात किया। - उसी तत्त्व के समर्थक, समदर्शी, सार्वभौम, सर्वज्ञवादी महोपाध्याय यशोविजय ने अपने साहित्य में समादर दिया है। हरिभद्रकालीन भट्ट अकलंक जैसे दिगम्बराचार्य ने अपने सिद्धि विनिश्चय न्याय विनिश्चय जैसे प्रामाणिक ग्रंथों में सम्पूर्णतया उल्लेख करके सत् को शाश्वत से संप्रसारित किया। उपाध्याय यशोविजय एक ऐसे बहुश्रुत महामेधावी रूप में जैन परम्परा के पालक उपाध्याय बने जिनका सत् साहित्य आज भी उसी तत्त्व का तलस्पर्शी तात्विक अनुशीलन के लिए प्रेरक प्रेरित करता . है। ऐसे प्रेरक आगम निष्कर्ष निर्णायक रहकर तात्विक पालोचन का पारावार असीम बना रहा है। यह सत् तत्त्व स्याद्वाद की सिद्धि का महामंत्र बनकर सप्तभंगी न्याय को निखार रूप दिया है। सत् को निहारना और सत् को सद्भाव से शिरोधार्य कर जीवन के परिपालन में सहयोगी बनाना, साथी रखना यह सुकृत कृत्य उपाध्याय यशोविजय, आचार्य हरिभद्र जैसे महाप्रज्ञों ने, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण जैसे क्षमाशीलों ने अपने अकाट्य तर्कों से सुसफल सिद्ध किया है। अन्यान्य दर्शनकारों ने इस सत् स्वरूप का सदा सर्वत्र यशोगान किया है। कहीं-कहीं पर सत्व को समझे बिना तत्त्व को पहचाने बिना, दुष्तर्कों से तोलने का अभ्यास भी बढ़ाया है। परन्तु उस सत् के संविभागी श्रेष्ठ श्रमणवरों ने अपने अकाट्य तर्कों से सुसफल सिद्ध किया है। - वैचारिक मंथन प्रायः हमेशा कौतूहलों से संव्याप्त रहा है। फिर भी सत्प्रवाद के प्रणेता ने दृष्टिवाद जैसे पूर्व में इस विषय को परम परमार्थता से एवं प्रामाणिकता से प्रस्तुत कर जैन जगत् की कीर्ति को निष्कलंकित रखा है। तत्त्व वह है जो तारक बनकर जीवन को तरल एवं सरल बना दे और प्रतिपल पलायित होने के लिए कोई प्रणिधान नहीं बनाये, क्योंकि प्राणों में तत्त्व का संवेदन चलता रहता है। उक्त नाड़िकाओं में वह तत्त्वरस संधोलित होता रहता है। ___ अनेकान्तवादियों का तात्विक विलोकन सर्वसारभूत सत् से सत्यापित रहा है। इस सत्व को सच्चाई व अच्छाई से आलेखन करने का श्रेय मल्लवादियों ने अर्जित किया है। सन्मति तर्ककार सिद्धसेन ने चरितार्थ बनाया। 122 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org