Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ * उपदेश रहस्य 203 पद्य की यह कृति है। इनकी रचना का मुख्य आधार हरिभद्रसूरि कृत उवसेसपय का उत्तरार्ध है। उपदेश रहस्य में निम्न पंक्ति का समावेश किया गया है स्वरूप हिंसा एवं अनुबंध हिंसा (गाथा सं. 4), अपूर्वन्धक ज्ञान (22 से 26), स्याद्वाद (100-102), द्रव्यहिंसा एवं भावहिंसा (118), उत्संग एवं अपकारी (142), सद्गुरु का लक्षण (011-150) एवं वाक्यार्थ इत्यादि का विवेचन (155-164) में है। __ गाथा 100-101 में विभज्यवाद पद का उपयोग किया है। उनका अर्थ स्याद्वाद ही होता है, जो निम्न है __. “सदसद विसेसणाओ विभज्जवाय विणा ज सम्मतं। जे पुण आणरुइणो तं निउणा बिति दव्वेणं।। अवि य अणायार सुए विभज्जवाओ विसैसओ सम्म। जं वृतोऽणायारो पतेयं दोहि ठाणेहिं।।" ___ अर्थात् विभज्यवाद यानी स्याद्वाद के बिना सद् एवं असद् का भेद करना शक्य न होने से सम्यक्त्व भी न रहे। आज्ञारुचि जीव को सम्यक्त्व होता है। वो द्रव्य से होता है, ऐसा विधानों में कहते हैं। अनाचारश्रुत अध्ययन में स्याद्वाद को विशेष स्थान दिया है, क्योंकि उनमें दो स्थान से अनाचार होता है। स्वोपज्ञ विवरण आदि एवं अंत में एक पद से विभूषित यह विवरण संस्कृत में है। उनका परिमाण 9700 श्लोक प्रमाण है। उसमें विविध ग्रंथों की साक्षी दी है। . . मूलग्रंथ प्राकृत में, टीका संस्कृत में, शैलीनव्य न्याय की है। उपाध्याय महाराज के उपदेश के विषय को ज्यादा सुवाच्च शैली में इस ग्रंथ में दर्शाया है। उपदेश रहस्य उपदेशपद का सरोवर लगता है। फिर भी यह ग्रंथ निरूपण दृष्टि से मौलिक है, स्वतंत्र है। उपाध्याय महाराज भगवद् मार्ग की गुंचों, विधाएं एवं भ्रमणाओं को स्पष्ट किया है। वरना यह शास्त्र स्याद्वाद रूपी समुद्र में निश्चय-व्यवहार, विधि-निषेध, उत्सर्ग-अपवादमार्ग, ज्ञाननय-क्रियानय आदि मार्गों का विविध नय की दृष्टि से ऐसा विवेचन देखने को मिलता, जो सभी के लिए कष्टदायक बनता। स्याद्वाद शैली का भी अगर सही प्रयोग करना न आये तो परिस्थिति गम्भीर हो सकती है। सुगृहीत च 'कर्त्तव्यम्' इस न्याय स्याद्वाद शैली सप्तभंगी एवं सातनय, निक्षेप आदि पूर्वपर दोष रहित सम्यग्ज्ञान एवं अन्य यथास्थान प्रयोजनकौशल हो तो विश्व की कोई भी विद्या सरलता से सुगम होती है। ऐसी स्याद्वाद परिपूर्ण रोचक शैली में यह ग्रंथ लिखा गया है। स्याद्वाद का सचित्र ज्ञान देने वाला यह ग्रंथ सभी के मन की द्विधा का परिणामस्वरूप है। इसलिए भी ग्रंथ की उपादेयता है। भाषा रहस्य __ ग्रंथ के नाम से ही पता चलता है कि यह ग्रंथ भाषा की उन ग्रंथियों को सुलझाता होगा, जिनसे अधिकांश जनसाधारण अपरिचित है। अद्यतन काल में भाषा का ज्ञान साधुभगवंत एवं जन-साधारण ' के लिए नितान्त आवश्यक है। कोई भी भाषा हो, परन्तु वह भाषा सभी प्रकार से विशुद्ध होनी चाहिए, 61 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org