________________ को अध्यात्म के रूप में स्वीकार करता है। ध्यान, समता आदि को अध्यात्म के रूप में संग्रह करने के लिए संग्रहनय अध्यात्म की व्याख्या इस प्रकार करता है कि क्लिष्ट चित्तवृत्तियों के निरोधपूर्वक एकाग्रचित्त के व्यापार से समता का आलम्बन लेकर जो सम्यक् पंचाचार का पालन है, वही अध्यात्म है।" यहाँ एक बात ध्यान में रखने योग्य है कि संग्रहनय के मत से सभी सत् है, किन्तु भूतल पर रहे हुए घड़े की ओर इशारा करके यह पूछे कि यह क्या है तो संग्रहनयवादी कहेगा कि वो सत् है, क्योंकि घड़े में भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य गुण रहा है, जो सत् का वाचक है। ठीक उसी तरह केवलभावना आदि भी अध्यात्मस्वरूप बन सकती है। अपुनर्बंधक अवस्था से लेकर अयोगी गुणस्थानक तक की उस अवस्था की अपेक्षा से की गई क्रिया अध्यात्म है। व्यवहारनय की दृष्टि में अध्यात्म बाह्य व्यवहार से पुष्ट मैत्र्यादिभावना से युक्त निर्मल चित्त अध्यात्म है। व्यवहारनय के मत से भव्यजीव के सधर्म आचरण से चित्त निर्मल वृत्ति अध्यात्म है, चित्त किन्तु अभव्य जीवों के द्वारा किया हुआ सद्धर्म का आचरण चित्त शुद्धि का हेतु नहीं होता है, इसलिए वह अध्यात्म नहीं है। केवल अपुनर्बंध क सम्यक्दृष्टि जीव के द्वारा किया हुआ सद्धर्म का आचरण ही अध्यात्म है। व्यवहार नय का आश्रय लेकर ही योगसार ग्रंथ में भी कहा गया है-सदाचार ही साक्षात् धर्म है, सदाचार ही अक्षय निधि है, सदाचार ही दृढ़ धैर्य है, सदाचार श्रेष्ठ यश है। ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में अध्यात्म - क्षणिक वर्तमानकालीन पर्यायों को स्वीकारने के कारण इस नय की दृष्टि में मैत्र्यादि से युक्त निर्मल वर्तमानकालीन स्वकीय चित्तलक्षण (विज्ञानक्षण) ही अध्यात्म है। ऋजुसूत्र वर्तमानकालीन स्वकीय भाव अध्यात्म को छोड़कर, अन्य भूतकालीन अध्यात्म, भविष्यकालीन अध्यात्म, नाम अध्यात्म, स्थापना अध्यात्म और द्रव्य अध्यात्म को स्वीकार नहीं करता है। बौद्ध विद्वानों ने भी ब्रह्म-विहार से वासित चित्तलक्षण को अध्यात्म कहा है। बौद्ध विद्वानों ने मैत्री आदि चार भावनाओं को ब्रह्म-विहार के रूप में स्वीकार किया है। शब्दनय की दृष्टि में अध्यात्म शब्दनय, शास्त्रयोग, वचन-अनुष्ठान-स्थैर्ययम-सिद्धि विनियोग-आशय-आगम के अनुसार तत्त्व चिंतनध्यान, विधि-जयणा से युक्त पंचाचार का पालन आदि अध्यात्म रूप में स्वीकार करता है। इसका कारण यह है कि शास्त्रयोग आदि अध्यात्मपद से वाच्य ऐसी अर्थक्रिया करने के लिए समर्थ है। आचार्य हरिभद्र ने योगबिन्दु ग्रंथ में बताया कि व्रत-सम्पन्न व्यक्ति का मैत्री आदि भाव प्रधान आगमानुसारी तत्त्वचिंतन अध्यात्म है। यह शब्दनय के अनुसार की गई अध्यात्म की व्याख्या है। समभिरूढ़ नय की दृष्टि में अध्यात्म इस नय के अनुसार अध्यात्म भावना, ध्यान, योग आदि के शब्दों के भेद से अर्थ का बंध रहा हुआ है। फिर भी साधक पुरुष ने शुद्ध आत्मदशा को केन्द्र में रखकर पंचाचार का पालन किया है 82 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org