Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ शुद्ध आत्मा में रागादि अशुद्ध अध्यवसाय रूप विकारों द्वारा अविवेक से विकार रूप विचित्रता भासित होती है।"108 निश्चयनय से अखण्ड होने पर भी पर के साथ एकरूप होने पर विकार वाली आत्मा दिखाई देती है। स्वभाव आत्मा की स्वस्थता है, क्योंकि वह स्व में स्थित होती है जबकि विभाव आत्मा की विकृत अवस्था का सूचक है। विभाव आध्यात्मिक रोग है, क्योंकि उसके कारण चेतना का ममत्व भंग होता है। चेतना में तनाव उत्पन्न होते हैं, जो सर्वप्रथम व्यक्ति के चित्त को उद्वेलित करते हैं किन्तु वहीं उद्वेलित चित्त आगे जाकर परिवार, समाज और राष्ट्र की शांति को भी भंग करता है। नित घर में प्रभुता है तेरी, पर संग नीच कहाओ। प्रत्यक्ष रीत लखी तुम ऐसी, गहिये आप सुहावो।। इस प्रकार विभाव एक विकृति है, एक बीमारी है। जैन धर्म की सम्पूर्ण साधना वस्तुतः इस आत्मिक विकृति की चिकित्सा का प्रयत्न है, जिससे हमारी चेतना विभाव से स्वभाव की ओर लौट आए। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् में जिन चार योगों का निरूपण किया है, वह वस्तुतः आत्मा को विभाव से हटाकर स्वभाव में स्थित करने के लिए ही है। उनका अध्यात्मवाद विभाव की चिकित्सा .. कर स्वभाव में स्थित होना है। दूसरे शब्दों में आत्मा को स्वस्थ बनाने का एक उपक्रम है, क्योंकि स्वभाव रक्षा को प्राप्त करना ही परम अध्यात्म है, यही परम अमृत है, यही परम ज्ञान है और यही परम योग है।100 अतः हम कह सकते हैं कि आत्मा की जो शक्तियां तिरोहित हैं, उन्हीं शक्तियों को प्रकट करने के लिए अन्तरात्मा पुरुषार्थ करते हुए आध्यात्मिक विकास मार्ग में आगे बढ़ती है। आत्मा में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र एवं सम्यस्वरूपी दीप के प्रज्वलित होने पर ज्ञानावरणीय आदि घातिकर्मों के आवरण हट जाते हैं तथा अनन्तचतुष्ट्य का प्रकटन होता है और आत्मा अन्तरात्मा से परमात्मा बन जाती है। अध्यात्मवाद में साधक. साध्य और साधन साधक जीवात्मा का स्वरूप आत्मा सूर्य के समान तेजस्वी है, किन्तु वह कर्म की घटाओं से घिरी हुई है, जिससे उसके दिव्य प्रकाश पर आवरण आ चुका है। उसका विशुद्ध स्वरूप लुप्त हो चुका है। विश्व की प्रत्येक आत्मा में शक्ति का अनन्त स्रोत प्रवाहित है। जिसे अपनी आत्मशक्ति पर विश्वास हो जाता है, और जो अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए अर्थात् विभाव दशा को छोड़कर स्वभाव में आने के लिए पुरुषार्थ आरम्भ करता है, वह साधक कहलाता है। खान में से निकले हीरे की चमक अल्प होती है परन्तु जब उसे अनेक प्रकार की प्रक्रियाओं से स्वच्छ कर तराश दिया जाता है तो उसकी चमक बढ़ जाती है। ठीक उसी प्रकार आत्मा की प्रथम अवस्था कर्म से मलिन अवस्था है, किन्तु विभिन्न प्रकार की साधनाओं द्वारा निर्मलता को प्राप्त करते हुए वही साधक परमात्मदशा को ही प्राप्त कर लेता है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् में कहा है, “साधना की प्राथमिक अवस्था में साधक इन्द्रियों के विषयों का अनिष्ट बुद्धि से त्याग करता है। साधना के उच्च शिखर पर पहुंचा हुआ अर्थात् योगसिद्ध पुरुष न तो विषयों का त्याग करते हैं और न उन्हें स्वीकार ही करते हैं किन्तु उनके यथार्थ स्वरूप को देखते रहते हैं।10 साधक के लक्षण शार्ङ्गधर पद्धति स्कन्धकपुराण और श्वेताश्वतरोपनिषद् आदि जैनेत्तर ग्रंथों में इस प्रकार बताया है कि 103 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org