Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ परमात्मा-आत्मा की विकसित अवस्था। उपाध्याय यशोविजय ने बहिरात्मा के चार प्रमुख लक्षण बताए हैं1. विषय-कषाय का आवेश, 2. तत्त्वों पर अश्रद्धा, 3. गुणों पर द्वेष और 4. आत्मा की अज्ञानदशा।। बहिर्मुखी आत्मा को आचारांग में बाल, मंद और मूढ़ नाम से अभिव्यक्त किया गया है। यह . अवस्था चेतना या आत्मा की विषयाभिमुखी प्रवृत्ति की सूचक है। __ जब तत्त्व पर सम्यक् श्रद्धान् सम्यग्ज्ञान महाव्रतों का ग्रहण आत्मा की अप्रमादी दशा और मोह पर विजय प्राप्त होती है तब अन्तरात्मा की अवस्था अभिव्यक्त होती है। 2 गुणस्थानक की दृष्टि से 13वां सयोगीकेवली और 14वां अयोगीकेवली के गुणस्थानक पर रहा हुआ आत्मा परमात्मा कहलाता है। आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व संसारी प्राणियों की विविधता का कारण कर्म ही है। कोई विद्वान् है, कोई मूर्ख है, कोई धनवान है, कोई गरीब, कोई आसक्त, कोई विरक्त, किसी का सत्कार तो किसी का तिरस्कार, कोई सुन्दर है और कोई कुरूप है, कोई लेखक है तो कोई कवि या वक्ता। कोई विशेष योग्यता न रखते हुए भी स्वामी बना हुआ है तो कोई योग्यता होते हुए भी सेवक है। ऐसी अनेक प्रकार की विचित्रताएँ हमें . संसार में देखने को मिलती हैं। इनका आन्तरिक हेतु कर्म है। आत्मा के बिना कर्म सर्वथा असंभव है। व्यवहारनय से उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है-“यह जीवात्मा ही सुखों तथा दुःखों का कर्ता तथा . भोक्ता है और यह जीवात्मा ही अपना सब से बड़ा मित्र है और स्वयं अपना सबसे बड़ा शत्रु है। यह आत्मा ही वैतरणी नदी तथा कूटशाल्मली वृक्ष के समान दुःखदायी है और यही कामधेनु तथा नन्दनवन के समान सुखदायी भी है। यह जीवात्मा अपने ही पापकर्मों द्वारा नरक और तिर्यंच गति के अनन्त दुःखों की भोक्ता है और वही अपने ही सत्कर्मों द्वारा स्वर्ग आदि विविध दिव्य सुख की भी भोक्ता है। व्यवहारनय वास्तविक परिस्थितियों और संयोगों को स्वीकार करता है। निरूपचरित असदभूत व्यवहारनय के अनुसार आत्मा कर्मों का कर्ता और भोक्ता है और उपचरित असद्भूत व्यवहारनय के अनुसार आत्मा देह के द्वारा स्थूल पदार्थों की भी भोक्ता है। जैसे मैं खाता हूँ, मैं नृत्य करता हूँ, मैं नाटक देखता हूँ आदि कथन इस नय के आधार पर है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मसार में कहा है, “जीव निश्चयनय से कर्मों का भोक्ता है तथा व्यवहारनय से स्त्री आदि का भी भोक्ता है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही शरीरयुक्त बद्धात्मा में ही पाए जाते हैं। मुक्तात्मा में नहीं।" उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि -व्यवहारनय से जीव पौद्गलिक कर्मों के फल का भोक्ता है। साथ ही घट-पट आदि पदार्थों का भी भोक्ता है। -अशुद्ध निश्चयनय से कर्मों के विपाक द्वारा प्राप्त सुख और दुःख आदि संवेदनाओं का भोक्ता है। 101 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org