________________ - संयम गुप्ति करने वाला है और तीनों का योग हो तो ही जिनशासन में मोक्ष की प्राप्ति कही है।। ज्ञान का सार चारित्र और चारित्र का सार मोक्ष है। सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी दो अश्व सम्यग्दर्शन रूपी रथ को खींचते हैं। सम्यग्दर्शन होने के बाद व्यक्ति ज्ञान तथा क्रिया द्वारा आध्यात्मिक विकास-मार्ग में आगे बढ़ता जाता है। जिस ज्ञान के साथ आत्मा एवं मोक्ष के प्रति यथार्थ श्रद्धा होती है, वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। ज्ञान के तीनों शेष संशय विभ्रम और विपर्यय सम्यग्दर्शन के स्पर्श से नष्ट हो जाते हैं और सामान्यज्ञान सम्यज्ञान में परिवर्तित हो जाता है-सा विद्या या विमुक्तये। विद्या या ज्ञान वही है, जो मुक्ति प्रदान करे। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् में कहा है कि ज्ञान के परिपाक से क्रिया असंगभाव को प्राप्त होती है। चंदन से जैसे सुगंध अलग नहीं होती है, उसी प्रकार ज्ञान से क्रिया अलग नहीं होती है। जिस तरह उत्तम चंदन कभी भी सुगंधरहित नहीं होता है, उसी प्रकार तत्त्वज्ञान कभी भी स्वोचित प्रवृत्ति से रहित नहीं होते हैं। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए उपाध्याय यशोविजय कहते हैं-जब तक ज्ञान और महापुरुषों के आचारों का समान रूप से अभ्यास नहीं किया जाता अर्थात् उसका बार-बार परिशीलन नहीं किया जाता तब तक व्यक्ति की ज्ञान या क्रिया में से एक भी वस्तु सिद्ध नहीं होती है। अन्य दर्शनकारों ने भी इस बात को स्वीकार किया है। योगवशिष्ट में कहा गया है-जैसे आकाश में दोनों ही पँखों द्वारा पक्षी की गति होती है उसी प्रकार ज्ञान और क्रिया से परमपद की प्राप्ति होती है। केवल क्रिया से या मात्र ज्ञान से मोक्ष नहीं होता है किन्तु दोनों के द्वारा ही मोक्ष होता है। दोनों ही मोक्ष के साधन हैं। - इस प्रकार साधनामार्ग में विविधता होते हुए भी वे समुच्चय रूप से ही मोक्ष के साधन हैं। - सन्दर्भ सूची 1. सरित्सहस्त्र दुष्पुर समुद्रोदर सोदरः, तृप्ति मानेन्द्रिय ग्रामो, भव तृप्तोनकरात्मा। 2. अभिधान राजेन्द्रकोश (भाग-1), पृ. 257 3. आत्मानमधिकृत्य स्याद् यः पंचाचारचारिमा शब्द योगार्थनिपुणास्तदध्यात्म प्रचक्षते।।2।। -अध्यात्मोपनिषद् निजस्वरूप जे किरया साधे तेह अध्यात्म कहीए रे। जे किरिया करे उगति साधे तेह न अध्यात्म कहीये रे।। -आनंदघनजी-श्रेयांसनाथ भगवान का स्तवन 5. आचारांगभाष्यम्, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 75 6. जे अज्झत्थं जाण्ई से बहिया जाणई। जे बहिया जणई से अज्झत्थं जाणई। -आचारांग सूत्र, सूत्र-74, पृ. 147 7. अध्यात्म और विज्ञान-डॉ. सागरमल जैन अभिनंदन ग्रंथ 112 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org