Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ प्राप्त कर सकता है। उपास्य के स्वरूप का ज्ञान तथा उपासना दोनों ही अपने में निहित परमात्म तत्त्व को प्रकट करने के लिए हैं।155 साधनों का आत्मा में एकत्व किसी भी कार्य को सिद्ध करने के लिए साधनों की आवश्यकता होती है। बिना साधनों के साध्य को प्राप्त नहीं कर सकते हैं, राह पर चले बिना मंजिल तक नहीं पहुंच सकते हैं। जीव जिन-जिन साधनों के द्वारा अपने आत्मस्वरूप को प्राप्त करता है तथा साधनों का आत्मा से एकत्व किस प्रकार है अर्थात् साध्य और साधन भिन्न-भिन्न है या अभिन्न? आदि प्रश्नों के संबंध में विवेचन है। जिन साधनों के द्वारा साधक साध्यदशा को प्राप्त होता है, उन साधनों का वर्णन करते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप के मार्ग का अनुसरण करने वाले जीव उत्कृष्ट सुगति मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-इन तीनों को ही मोक्षमार्ग माना ह17 तथा तप को चारित्र का ही एक अंग माना है तथापि उत्तराध्ययन सूत्र में तप को जो पृथक् स्थान दिया, उसका कारण यही है कि तप कर्मक्षय का विशिष्ट साधक है। साधनापथ और साध्य दोनों ही आत्मा की अवस्थाएँ हैं। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मसार में कहा है-जब ज्ञान, दर्शन और चारित्र के साथ आत्मा की एकता सध जाती है तब कर्म जैसे क्रोधित हो गए हों, इस तरह आत्मा से अलग हो जाते हैं। जब आत्मा स्वयं के ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप स्वभाव में स्थित हो जाती है, तब कर्मों के रहने के लिए कोई अवकाश नहीं रहता है। रलत्रयं मोक्षः अर्थात् रत्नत्रय मोक्ष है। उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि कर्मक्षय तो द्रव्यमोक्ष है। यह आत्मा का लक्षण नहीं है। द्रव्यमोक्ष के हेतुभूत आत्मा का रत्नत्रय से एकत्व ही भावमोक्ष है। नियमसार की टीका में कहा गया है-“आत्मा को ज्ञानदर्शनरूप जान और ज्ञानदर्शन की आत्मा जान।" इसका तात्पर्य यही है कि ज्ञानदर्शनादि आत्मा से भिन्न नहीं है, आत्मा का ही स्वरूप है।"140 डॉ. सागरमल जैन साधनापथ और साध्य को अभिन्न बताते हुए कहते हैं-जीवात्मा को अपने ज्ञान, अनुभूति और संकल्प के रूप में साधक कहा जाता है। उसके यही ज्ञान, अनुभूति और संकल्प सम्यक् दिशा में नियोजित हो जाने पर साधनापथ बन जाते हैं।" जब साधक आध्यात्मिक विकास-मार्ग में आगे बढ़ता है, तब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र, सम्यगतप उसके साधना-पथ बनते हैं और साधना-पथ पर चलते हुए जब वह अनन्तचतुष्ट्य उपलब्ध कर ले, तो वही अवस्था साध्य बन जाती है। आत्मा की सम्यक् अवस्था साधना-पथ है और पूर्णावस्था साध्य है। गीता के अनुसार भी साधनामार्ग के रूप में जिन सद्गुणों का विवेचन उपलब्ध है, उन्हें परमात्मा की विभूति माना गया है। यदि साधन आत्मा-परमात्मा का अंश है, साधनामार्ग परमात्मा की विभूति है और साध्य वही परमात्मा है तो फिर इनमें अभेद ही माना जायेगा। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् में कहा है-“संग्रहनय के अनुसार सत्, चित्त, आनन्दस्वरूप बाध्य तत्त्व शुद्धात्मा है अर्थात् आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय है, सच्चिदानंद स्वरूप है। परस्पर अनुविद्ध सत्व, ज्ञान और सुखमय आत्मा, यही परमात्मा है।"142 109 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org