________________ अवस्था है, वह सिद्धों में भी नहीं है। सिद्धों में मार्गणा से संबंधित अणाहारक दशा भी नहीं और आहारक दशा भी नहीं है। वे अणाहारक तो हैं परन्तु वह आत्मस्वभाव की अपेक्षा से है। इसी प्रकार गुणस्थान सापेक्ष केवल अनादि उनमें नहीं है। परन्तु आत्मस्वभावभूत केवलज्ञानादि तो है ही। षोडशक नामक ग्रंथ में आचार्य हरिभद्रसूरि ने परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए 23 विशेषण दिए हैं। परमात्मा शरीर इन्द्रियादि से रहित, अचिंत्य गुणों के समुदाय वाले, सूक्ष्म त्रिलोक के मस्तकरूप सिद्धयोग में रहे हुए, जन्मादि संक्लेश से रहित, प्रधान ज्योतिस्वरूप अंधकार से रहित, सूर्य के वर्ण जैसे निर्मल अर्थात् रागादि मल से शून्य, अक्षर बाध्य नित्य, प्रकृति रहित लोकालोक को जानने तथा देखने के उपयोग वाले, समुद्र जैसे वर्ण रहित, स्पर्श रहित, अगुरुलघु सभी कलाओं से रहित परमानंद सुख से युक्त असंगत सभी कलाओं से रहित सदाशिव आदि-आदि शब्दों में अभिधेय है।' न्यायविजय ने अध्यात्म तत्त्वलोक में कहा है-“ईश्वर सभी कर्मों से मुक्त महेश्वर स्वयंभू, पुरुषोत्तम पितामह, परमेष्ठी तथागत सुगत, शिव, अर्थात् कल्याणकारी है।"125 तत्त्वज्ञान तरंगिणी ग्रंथ में ज्ञानभूषण ने बताया है कि स्पर्श, रस, गंध रूप और शब्द से मुक्त ऐसा स्वात्मा ही परमात्मा है। निरंजन है इस कारण से परमात्मा का इन्द्रियों द्वारा अनुभव नहीं हो सकता है। हेमचन्द्रसरि ने योगशास्त्र में कहा है-"चिदरूप आनन्दमय सर्वउपाधिरहित शुद्ध अतीन्द्रिय, अनन्तगुण सम्पन्न ऐसे परमात्मा हैं।" स्याद्वाददृष्टि से ईश्वर साकार है और निराकार भी है। रूपी है, अरूपी भी है, सगुण है, निर्गुण भी, विभु है, अविभु भी है, भिन्न है, अभिन्न भी है, मनरहित है, मनस्वी भी है, पुराना है और नवीन भी। परब्रह्माकारं सकल जगदाकाररहितं, सरूपं नीरूपं सगुणमगुणं निर्विभु विभुम। विभिन्न सम्भिन्नं विगतमनसं साधु मनसं, पुराणं नव्यं चाधिहृदयमधीशं प्रणिदधे।। मुक्ति में जाने वाले परमात्मा ने जैसे शारीरिक आसन में यहां पृथ्वी पीठ पर शरीर छोड़ा हो, ऐसे आसन के स्वरूप में उनकी आत्मा मुक्ति में उपस्थित होती है। इस दृष्टि से ईश्वर साकार है। किसी प्रकार का दृश्य रूप या मूर्तता नहीं होने से वह निराकार भी है। ज्ञानादि गुणों के स्वरूप के आश्रयरूपी है और मूर्त रूप की अपेक्षा से अरूपी है। अनन्तज्ञान, दर्शन, आनन्द आदि गुणों से गुणी है और सत्व, रज, तम गुणों के अत्यन्ताभाव से अगुणी है। ज्ञान से विभु है और आत्मप्रदेशों के विस्तार से अविभु है। जगत् से निराले होने के कारण भिन्न है और लोकाकाश में अनन्तजीवों और पुद्गलों के साथ संसर्गवान होने से अभिन्न है। विचाररूप मन नहीं होने से अमनरूप है और शुद्धात्मोपयोग होने से मनस्वी है। प्रथम सिद्ध कौन हुआ? इसका पता नहीं होने से समुच्चय से सिद्ध भगवान पुराने हैं और व्यक्ति की अपेक्षा से प्रत्येक जीव नवीन (खादी) है। विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है-मोक्ष में जाते हुए जीव को सम्यक् ज्ञान, दर्शन, सुख और सिद्धि के सिवाय औदायिक भाव तथा भव्यत्व एक साथ नष्ट हो जाते हैं। दोनों नहीं रहते हैं, क्योंकि सिद्ध के जीव भव्य भी नहीं हैं और अभव्य भी नहीं हैं। 28 उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मसार में परमात्मा को शुद्ध प्रकृष्ट ज्योतिरूप बताया है तथा कहा है कि सत्, चित्त और आनन्दस्वरूप सूक्ष्म पर से परे ऐसी आत्मा मूर्तत्व को स्पर्श भी नहीं करती है। 107 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org