Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ -शुद्ध निश्चयनय से आत्मा चिदानंद स्वभाव का भोक्ता है। यहाँ भोक्तृत्व अर्थ मात्र स्वरूप स्थिति है। -आदिपुराण में कहा गया है कि परलोक संबंधी पुण्य और पापजन्य फलों की भोक्ता, आत्मा है। स्वामी कार्तिकेय ने भी आत्मा को कर्म विचारजन्य सुख-दुःख की भोक्ता कहा है। गया है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मसार में एक द्रष्टान्त दिया है कि जिस व्यक्ति को तालाब के कम पानी में तैरना नहीं आता है, वह समुद्र को तैरकर सामने किनारे पर पहुंचने की अभिलाषा रखता है तो यह हास्यास्पद है, उसी प्रकार व्यवहारनय को जाने बिना केवल शुद्ध निश्चयनय की बात करना हास्यास्पद है। दोनों नय मनुष्य की दो आँखों के समान हैं, एक ही रथ के दो पहियों के समान हैं इसलिए जैनदर्शन में व्यवहारनय से आत्मा को कर्मों का तथा स्थूल पदार्थों का कर्ता तथा भोक्ता स्वीकार किया गया है तथा निश्चयनय से आत्मा को अपने चिदानंदस्वरूप के कारण भोक्ता कहा गया है। आत्मा की स्वभाव दशा एवं विभाव दशा - अध्यात्मवाद की साधना का यदि कोई प्रयोजन है तो वह विभाव से हटकर स्वभाव में लौटना - ही है। जैनधर्म की आध्यात्मिक साधना विभाव दशा से स्वभाव की ओर एक यात्रा है। यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि स्वभाव और विभाव क्या है? आत्मा में पद के निमित्त से जो विकार उत्पन्न होते हैं या भावों का संक्लेशयुक्त जो परिणमन होता है, वह विभाव कहलाता है। जैनदर्शन में राग-द्वेष तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, ममत्व आदि कषाय-भावों को वैभाविक दशा के सूचक माना है। उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि “जैसे घट के एक बीज में से उत्पन्न हुआ वटवृक्ष विशाल भूमि में फैल जाता है, उसी प्रकार एक ममतारूपी बीज में से सारे प्रपंच की कल्पना खड़ी होती है।"105 - जिस प्रकार सूरज पूर्व दिशा को त्याग कर पश्चिम दिशा में अनुरक्त होकर अस्त हो जाता है, उसी प्रकार जब आत्मा समता रूपी स्वघर का त्याग करके ममतारूपी परघर में अनुरक्त हो जाती है तब उसकी शुद्ध स्वाभाविक दशा पर मिथ्यात्वरूपी तम छा जाता है। आत्मविश्वास में पिछड़े ऐसे बहिरात्मा जीव संसार में दुःखी होने पर भी संसार के भौतिक सुखों में आसक्त रहते हैं। वे विभाव को ही अपना स्वभाव मान लेते हैं? उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञानसार में कहा है-“आत्मद्रव्य से भिन्न धन-धान्य परिग्रहादिरूप पर उपाधि में ही जिसने पूर्णता मान ली है, वह पूर्णता, मांगकर लाए हुए आभूषणों की शोभा से अपने आपको धनवान मानने के समान है जबकि ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप स्वभाव से सिद्ध जो पूर्णता है, वह महारत्न की कांति के समान है।" पर पर स्व का आरोपण करने रूप मिथ्याभाव से ही विभाव का जन्म होता है। यह सत्य है कि ज्ञान के लिए ज्ञेय की अपेक्षा रहती है किन्तु उस ज्ञेय तत्त्व के सम्बन्ध में जब तक चेतना में रागादि कषायभाव उत्पन्न नहीं होते हैं, आत्मा में विकार-भाव नहीं जगते तब तक वह ज्ञेय तत्त्वज्ञान का हेतु होकर भी विभाव का कारण नहीं बनता है। इसलिए जैनदर्शन में आत्मा के ज्ञाताद्रष्टाभाव या साक्षीभाव को आत्मा का स्वभाव कहा गया है। उपाध्याय यशोविजय कहते हैं-"जैसे निर्मल आकाश में आँख में तिमिर नाम के रोग होने से नीली-पीली आदि रेखाओं से चित्रित आकार दिखाई देता है, उसी प्रकार 102 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org