Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ - रसलोलुपता का अभाव, आरोग्य, अनिष्ठुरता, मलमूत्र की अल्पता, चेहरे पर कान्ति एवं प्रसन्नता, सौम्य स्वर, विषयों में अनासक्ति, प्रभावकता रति, अरति से अपराजित, उत्कृष्ट जनप्रियत्व विनम्रता शरीर का आह्लादक वर्ण आदि साधना की प्राथमिक अवस्था के लक्षण हैं। योगसिद्ध पुरुषों में दोषों का अभाव, आत्मानुभवजन्य परमतृप्ति और समता होती है। उनके सान्निध्य से तो वैरियों के वैर का भी नाश हो जाता है।" साधना के क्षेत्र में साधक को अपनी आत्मशक्ति व्यक्त करने के लिए अशुभ से शुभ में और शुभ से शुद्ध में जाना होता है। इस दौरान साधक अनेक अवस्थाओं से गुजरता है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्म के अधिकारी पुरुष में तीन बातें होना आवश्यक बताया है-1. मोह की अल्पता, 2. आत्मस्वरूप की ओर अभिमुखता, 3. कदाग्रह से मुक्ति। मूंग के पकने की क्रिया में जैसे समय जाता है, प्रथम अल्पपाक, फिर कुछ अधिक पाक इस तरह वे बीस-पच्चीस मिनिट में पूर्णतः पकते हैं, उसी प्रकार साधक भी योग्य उपायों पूर्वक प्रवर्तन करते हुए क्रमशः अपुनर्बंधक की प्राप्त ग्रंथिभेद सम्यक्त्व की प्राप्ति क्षपकश्रेणी वीतराग अवस्था तक पहुंचता है। बारहवें गुणस्थानक तक की अवस्था साधक अवस्था कहलाती है। अपुनर्बंधक अपुनर्बंधक आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगशतक में अपुनर्बंधक के तीन लक्षण बताए हैं1. वह तीव्र भाव से पाप नहीं करता है, 2. संसार के प्रति बहुमान नहीं रखता है, 3. सर्वत्र उचित आचरण करता है।" . .. पुनः एक भी बार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को नहीं बांधने वाले जीव को अपुनर्बंधन कहते हैं। यह साधक की प्रारम्भिक अवस्था है। निकाचित चिकने कर्म बंधे-यह ऐसे तीव्र भाव से पाप नहीं करता है। कभी कोई समय ऐसे पाप करने का प्रसंग आए तो उस प्रकार के पूर्व में बंधे हुए कर्मों के उदय की परवशता के कारण ही करता है परन्तु स्वयं की रसिकता से पाप नहीं करता है। संसार असार है, भयंकर है, अनन्त दुःखों की खान है-यह समझकर सांसारिक प्रवृत्तियों को हृदय से बहुमान नहीं देता है। इस अवस्था में साधक मार्गनुसारित के अभिमुख है। मयूरशिशु की तरह अपुनर्बधन कहलाता है। मयूर शावक बराबर माता के पीछे चलता है, उसी प्रकार आत्मा भी सरल परिणामी बनकर बराबर मोक्ष मार्ग के अभिमुख होकर चलती है। सम्यग्दृष्टि राग-द्वेष का ग्रंथिभेद करने के बाद साधक को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने सम्यग् दृष्टि जीव के तीन लिंग बताए हैं-1. सुश्रूषा, 2. धर्मराग और 3. चित्त की समाधि।।" सम्यग्दृष्टि जीव की धर्मशास्त्र सुनने की अत्यन्त उत्कण्ठा होती है। उपाध्याय यशोविजय ने सम्यक्त्व 67 बोल की सज्झाय में कहा है तरुण सुखी स्त्रीपरिवर्यो रे, चतुर सुणे सुरगीत। तेह थी रागे अतिघणे रे, धर्म सुण्या नी रीत रे।।प्राणी।। 104 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org