Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ इस प्रकार हम देखते हैं कि उपाध्याय यशोविजय भौतिक सुख-सुविधाओं से जन्मे सुख को दुःख का ही कारण मानते हैं। विशेषावश्यक भाष्य में भी कहा गया है कि विषय सुख-दुःख रूप ही है, दया की तरह दुःख के ईलाज के समान है। उन्हें उपचार से ही सुख कहते हैं। परन्तु सुख का तत्त्व उसमें नहीं होने से उपचार भी नहीं घटता है। उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि आध्यात्मिक सुख निर्द्वन्द्व या विशुद्ध होता है, जबकि भौतिक सुख में द्वन्द्व होता है अर्थात् सुख के साथ दुःख जुड़ा हुआ होता है। ___उनका यह कथन वर्तमान परिस्थितियों में भी सत्य ही सिद्ध होता है। आज विश्व में संयुक्तराष्ट्र अमेरिका वैज्ञानिक प्रगति और तदजन्य सुख-सुविधाओं की दृष्टि से सर्वोच्च शिखर पर माना जाता है किन्तु इसके विपरीत यथार्थ यह है कि आज संयुक्तराष्ट्र अमेरिका में व्यक्ति को सुख की नींद उपलब्ध नहीं है। विश्व में नींद की गोलियों की सर्वाधिक खपत अमेरिका में ही है। अमेरिका के निवासी विश्व में सर्वाधिक तनावग्रस्त हैं। आखिर ऐसा क्यों? इसका कारण स्पष्ट है कि उन्होंने भौतिक सुख-सुविधाओं को ही अपने जीवन का चरम लक्ष्य बना लिया है। ऐसी स्थिति का चित्रण करते हुए उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मसार में लिखा है-इस संसार में उन्माद को प्राप्त पराधीन बने प्राणी क्षण में हंसते हैं और क्षण में रोते हैं। क्षण में आनन्दित होते हैं और क्षण में ही दुःखी बन जाते हैं।" वस्तुतः उपाध्याय यशोविजय का यह चिन्तन आज भी हमें यथार्थ के रूप में प्रतीत होता है। यह सत्य है कि विज्ञान और तद्जन्य सुख-सुविधा के साधन न तो अपने आप में अच्छे हैं और ' न बुरे / उनका अच्छा या बुरा होना उनके उपयोगकर्ता की दृष्टि पर निर्भर है। जब तक व्यक्ति में सम्यक् दृष्टि का विकास नहीं होता है, उसके वे सुख के साधन भी दुःख के साधन बन जाते हैं। चाकू अपने आप में न तो बुरा है और न अच्छा। उससे स्वयं की रक्षा की जा सकती है और दूसरों की हत्या भी। मूलतः बात यह है कि हम उसका उपयोग कैसे करते हैं। उपयोग करने हेतु सम्यग्दृष्टि का विकास आवश्यक है। आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि ही वैज्ञानिक उपलब्धियों के उपयोग को सम्यक् दिशा प्रदान कर सकती है। उपाध्याय यशोविजय की दृष्टि में सर्वप्रथम दो बातों को जान लेना आवश्यक है। प्रथम तो यह कि सुख मात्र वस्तुनिष्ठ नहीं है, वह आत्मनिष्ठ भी है। दूसरी यह कि सुख पराधीनता में नहीं है। पराधीनता चाहे मनोवृत्ति की हो या इन्द्रिय और शरीर की, वे सुख का कारण नहीं हो सकतीं। वे स्वयं लिखते हैं-यदि संसार में हाथी, घोड़े, गाय, बैल अर्थात् परिग्रहजन्य सुख-सुविधा के साधन सुख के कारण हो सकते हैं तो फिर ज्ञान, ध्यान और प्रशम भाव आत्मिक सुख के साधन क्यों नहीं हो सकते। / वस्तुतः परपदार्थों में सुख मानना पराधीनता का लक्षण है। स्वाधीन सुख का त्याग करके इस पराधीन सुख की कौन इच्छा करेगा? इस प्रकार उपाध्याय यशोविजय ने इस बात का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन किया है कि भौतिक सुख वास्तविक सुख नहीं है। आत्मिक सुख ही वास्तविक सुख है। आत्मिक गुणों के विकास से ही संसार में सुख-शांति और समृद्धि आ सकती है। इस प्रकार वे विज्ञान के विरोधी तो नहीं हैं किन्तु भौतिक जीवन-दृष्टि के स्थान पर आत्मिक जीवन-दृष्टि के माध्यम से ही विश्वशांति की उपलब्धि हो सकती है, इस मत के प्रबल समर्थक हैं। 95 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org