________________ उपयोग दो प्रकार का कहा गया है-निराकार उपयोग और साकार उपयोग। इनको क्रमशः दर्शन और ज्ञान भी कहा जाता है। जो वस्तु के सामान्य स्वरूप को ग्रहण करता है, वह दर्शनोपयोग कहा जाता है और जो वस्तु के विशिष्ट स्वरूप को ग्रहण करे, उसे ज्ञानोपयोग कहा जाता है। आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञानसार में कहा है, "जब आत्मा, आत्मा के द्वारा, आत्मा को ही आत्मा में जानती है तो वही आत्मा चरित्ररूप और वही आत्मा दर्शनरूप होती है। इन गुणों को आत्मा से भिन्न नहीं किया जा सकता है। आत्मस्वरूप में रमण करने की प्रवृत्ति त्यागने से, चारित्ररूप को जानने से, ज्ञानरूप और स्वयं के असंख्य प्रदेशों में फैलकर रहने वाला होने से सहजरूप ज्ञानादि अनन्त पर्यायवाला मैं हूँ। इस प्रकार का निर्धारण ही दर्शन होता है। इस प्रकार आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, लक्षण से ही पहचानी जाती है। उपाध्याय यशोविजय ने आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र से भी अभिन्न है, यह बताने के लिए एक रत्न का उदाहरण दिया है। रत्न का तेज और रत्न अलग-अलग नहीं हैं। रत्न को ग्रहण कर लिया जाए तो उसका तेज उससे अलग होकर नहीं रहता, वह रत्न के साथ ही रहता है। रत्न और तेज को अलग नहीं कर कसते, दोनों में गुण और गुणी का सम्बन्ध है, उसी प्रकार आत्मा से उसके ज्ञानादि गुण अभिन्न हैं। प्रश्न उठता है कि यदि ज्ञान, दर्शन, चारित्र-तीनों अलग-अलग हैं तो ये तीनों आत्मा में एक साथ कैसे रह सकते हैं। इसका उत्तर यह है कि जैसे रत्न की प्रभा, निर्मलता और शक्ति आदि अलग-अलग होने पर भी तीनों गुण एक साथ रह सकते हैं, उसी प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र-ये तीनों गुण आत्मा से अभिन्न हैं। निश्चयनय से आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही दर्शन है और आत्मा ही चारित्र है। उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि वस्तुतः ज्ञानादि गुण का स्वरूप आत्मा से भिन्न नहीं है अन्यथा आत्मा अनात्मा रूप हो जाएगी और ज्ञानादि गुण भी जड़ हो जाएंगे परन्तु ऐसा शक्य नहीं है। इसलिए आत्मा और इसमें ज्ञानादि गुणों के बीच अभिन्नता है। आत्मद्रव्य सर्वत्र सर्वकाल एक जैसा है संसार में मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारक-इन चारों गतियों के अनन्तानन्त जीव हैं। प्रतिसमय जन्म-मरण का चक्र चल रहा है। पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम का क्रम चल रहा है पर इन सब में रही हुई विशुद्ध आत्मा ज्ञानगुण से और आत्मप्रदेशों से एक जैसी है। स्थानांग सूत्र में यह कहा गया है कि एगे आया अर्थात् आत्मा एक है। आत्माएँ अनन्त होने पर भी चौदह राजलोक की सभी आत्माएँ समान हैं। इसका आशय यही है कि सभी जीवों में स्वरूप-दृष्टि से एक ही प्रकार की आत्मा रही हुई है। इसलिए संग्रहनय की दृष्टि से आत्मा एक है, यह कहने में आया है। आत्मा के द्वारा धारण किये हुए देह भिन्न-भिन्न हैं परन्तु यह भिन्नता बाह्य है, भ्रामक है, क्षणिक है, इसे उपाध्याय यशोविजय ने सुवर्ण के अलंकारों का उदाहरण देकर बताया है। एक ही स्वर्ण कंगन, कुण्डल आदि बनाने में काम आता है। कंगन को गलाकर हार बनाया जाता है। हार को गलाकर पोंची बनाई जाती है। ये सभी अलंकार नाम रूप आदि से भिन्न हैं। किन्तु उन सबमें रहा हुआ स्वर्ण तो वही है। एक ही व्यक्ति में बालपन, यौवन, वृद्धावस्था आदि अवस्थाएँ देखने में आती हैं लेकिन इसमें रही हुई आत्मा न तो बालक है और न ही वृद्ध। आत्मद्रव्य सर्वत्र सर्वकाल में एक ही जैसा है। 97 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org