________________ भी व्यक्ति चौबीस घंटे क्रोध की स्थिति में नहीं रह सकता है, किन्तु शान्त रह सकता है, समत्वभाव में रह सकता है। अतः आत्मा के लिए क्रोध विधर्म है और समत्व स्वधर्म है। दूसरे शब्दों ने समत्व का भाव या ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थित रहना ही धर्म है। उपाध्याय यशोविजय भी कहते हैं कि निश्चयनय से विशुद्ध ऐसी स्वयं की आत्मा में चित्तवृत्ति का द्रष्टाभाव से रहना ही अध्यात्मधर्म है। अध्यात्मसार में उन्होंने बताया कि निश्चयनय पांचवें देशविरति नामक गुणस्थान से ही अध्यात्म को स्वीकार करता है, क्योंकि यहाँ से चित्तवृत्ति का निर्मल होना प्रारम्भ हो जाता है। धर्म को चाहे वस्तुस्वभाव के रूप में परिभाषित किया जाए, चाहे समता या अहिंसा के रूप में परिभाषित किया जाए, उसका मूल अर्थ यही है कि वह विभाव से स्वभाव की ओर यात्रा करे और यही अध्यात्म और धर्म में तादात्म्य होता है। भौतिक सुख और अध्यात्म वर्तमान युग विज्ञान का युग है। वैज्ञानिक खोजों के माध्यम से मनुष्य की सुख-सुविधा के अनेक साधन उपलब्ध हैं। सुख-सुविधा के इन साधनों के योग में मनुष्य इतना निमग्न हो गया है कि वह आध्यात्मिक सुख-शांति और अनुभूति से वंचित हो गया है। वह भौतिक-सुख को ही सुख मानने लगा है, किन्तु उपाध्याय यशोविजय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जब तक आत्मतत्त्व का बोध नहीं होता है, तभी तक सांसारिक विषय-वासनाओं में मनुष्य की रुचि बनी रहती है। वे अध्यात्मसार में लिखते हैं, “मैं पहले प्रिया, वाणी, वीणा, शयन, शरीर-मर्दन आदि क्रियाओं में सुख मानता था, किन्तु जब आत्मस्वरूप का बोध हुआ तो संसार के प्रति मेरी रुचि नहीं रही, क्योंकि मैंने जाना कि संसार के सुख . पराधीन है और विनाशशील स्वभाव वाले हैं, क्योंकि इच्छाएँ और आकांक्षा हमारी चेतना के समत्व को भंग करती है। वे भय और कुबुद्धि के आधार हैं।"59 यशोविजय ने ज्ञानसार में कहा है कि इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि भी विषयों से अतृप्त ही रहते हैं, वे सुखी नहीं हैं। षड्रस भोजन, सुगंधित पुष्पवास, रमणीय महल, कोमल शय्या, सरस शब्दों का श्रवण, सुन्दर रूप का अवलोकन लम्बे समय तक करने पर भी उन्हें तृप्ति नहीं होती है, जबकि भिक्षा से जो भूख का शमन करता है, पुराना जीर्ण-वस्त्र पहनता है, वन ही जिसका घर है, आश्चर्य है कि ऐसा निःस्पृह मुनि चक्रवर्ती से भी अधिक सुखी है।। - सच्चा सुख तो वही हो सकता है, जो स्वाधीन हो और अविनाशी हो। इन्द्रियों के विषयों की आकांक्षा या इच्छा से रहित आत्मिक सुख तो अध्यात्म के माध्यम से ही उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि वास्तविक सुख भौतिक सुख नहीं है, आत्मिक सुख ही वास्तविक सुख है। ये लिखते हैं-अपूर्ण विद्या, धूर्त मनुष्य की मैत्री तथा अन्याय युक्त राज्य प्रणालिका जिस प्रकार अंत में दुःख प्रदाता है, उसी प्रकार सांसारिक सुखभोग भी वास्तविक सुख नहीं हैं। वे भी अंत में दुःख प्रदाता ही बनते हैं। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि जिस प्रकार कोई प्रेमी पहले प्रेमिका की प्राप्ति के लिए दुःखी होता है, उसके बाद उसका वियोग न हो, इसकी चिंता में दुःखी होता है। इसलिए उपाध्याय यशेविजय की मान्यता है कि सांसारिक सुख के साधनों के उपार्जन में व्यक्ति दुःखी होता है। फिर उन साधनों की रक्षण की चिंता में दुःखी रहता है, फिर अंत में उनके वियोग या नाश होने पर दुःखी होता है। 94 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org