________________ इच्छाओं और आकांक्षाओं के कारण हमारा चित्त उद्विग्न एवं मलीन है। अध्यात्म के अधिकारी विषय-विवेचन के बाद अध्यात्म के विभिन्न स्तरों पर प्रकाश डालेंगे, जो निम्न हैं अध्यात्म के विभिन्न स्तर उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्म के विभिन्न स्तर माने हैं-अध्यात्मयोग, अध्यात्मबीज, अध्यात्म अभ्यास तथा अध्यात्म आभास। अध्यात्मयोग किसमें है? अध्यात्मबीज किसमें अंकुरित होता है? अध्यात्मयोग के अभ्यास की ओर कौन बढ़ रहा है तथा किसे अध्यात्म का आभास होता है? इन सभी तथ्यों पर उपाध्याय यशोविजय के अनुसार विवेचन प्रस्तुत है। शुद्ध निश्चय के मत से सर्वविरत मुनि को ही अध्यात्मयोग होता है। इसका कारण यह है कि संसार रूपी सागर को पार करने की तीवेच्छा से मुनि ने आध्यात्मिक विकास के छठे गुणस्थानक को प्राप्त कर लिया है और छठे गुणस्थानकवर्ती जीव में लौकेषणा नहीं होती है। अतः वही अध्यात्म योगों का वास्तविक अधिकारी होता है। उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञानसार में कहा है कि धार्मिक मर्यादा में रहते हुए जिसने सर्वविरति रूप छट्ठा गुणस्थान प्राप्त कर लिया है तथा जो संसार रूप विषम पर्वत को पार करने के लिए तैयार है, ऐसा मुनि लोक संज्ञा, अर्थात् लोकेषणा का त्यागी होता है। गतानुगतिकता नीति यानी दूसरे लोगों ने किया है, वही करना है, जो इस प्रकार की आग्रह बुद्धि वाला नहीं होता, उसे ही अध्यात्मयोग होता है। शुद्ध निश्चय नय के मत से देशविरति श्रावक को अध्यात्म योग का बीज होता है। व्यवहार से अनुग्रहित या अशुद्ध निश्चय नय से देशविरति श्रावक को भी अध्यात्म योग होता है। अपुनबंधक और सम्यक् दृष्टि जीव को अध्यात्म योग का बीज होता है। व्यवहार नय से अपुनर्बंधक, मार्गाभिमुख मार्ग से प्राप्त सम्यग् दृष्टि श्रावक और साधु सभी को अध्यात्म योग तात्विक विशुद्धि में संभव होता है। योगबिन्दु में कारण में कार्य का उपचार करके व्यवहार से अपुनर्बंधक को अध्यात्म और भावना स्वरूप तात्विक योग होता है, क्योंकि कारण भी कदाचित् कार्य स्वरूप है। अध्यात्मसार में यशोविजयजी ने भी कारण में कार्य का उपचार करते हुए कहा है कि अपुनर्बंधक भी जो शमयुक्त क्रिया करता है, वह दर्शन भेद से अनेक प्रकार की हो सकती है। ये क्रियाएँ भी धर्म में विघ्न करने वाले राग और द्वेष का क्षय करने वाली हो सकती हैं, इसलिए ये क्रियाएँ भी अध्यात्म का कारण होती हैं।" अध्यात्म अभ्यास अध्यात्म के अभ्यास काल में भी जीव कुछ शुद्ध क्रिया, जैसे-दया, दान, विनय, वैयावृत्य करता है तथा शुभ ओघसंज्ञा वाला ज्ञान भी रहता है। सकृतबंधक आदि जीव तो अशुद्ध परिणाम वाले होने से निश्चय और व्यवहार नय से उनको अध्यात्म योग नहीं होता है परन्तु केवल अध्यात्म योग का अभ्यास ही होता है। अध्यात्म अभ्यास यानी कभी-कभी उचित धर्म प्रवृत्ति सकृत बंधकादि को भाव अध्यात्म 89 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org