Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ 3. अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय के अनुसार असदाचार से सम्पन्न ऐसी भोगी अवस्था से निवृत्त हुआ और सदाचारी के परिपालन में निरत आत्म-विशुद्धि की ओर अभिमुख आत्म-द्रव्य ही अध्यात्म है। 4. अशुद्ध पर्यायार्थिक नय के अभिप्राय से असंयमजन्य असदाचार का त्याग करके आत्मा में सदाचरण के गुण को प्रकट करना अध्यात्म है। अध्यात्मसार में यशोविजय ने कहा है कि चौथे गुणस्थानक में देव गुरु की भक्ति, विनय वैयावच्च, धर्मश्रवण की इच्छा आदि क्रियाएँ रही हुई हैं। वहाँ उच्च क्रिया नहीं होने पर भी अशुद्ध पर्यायार्थिक नय से अध्यात्म है। स्वर्ण के आभूषण नहीं हो तो चांदी के आभूषण भी आभूषण ही हैं। अध्यात्म के अधिकारी महान और दुर्लभ ऐसे अध्यात्म को प्राप्त करने का अधिकारी कौन है? इसका स्वरूप क्या है? यह जानना भी आवश्यक है, क्योंकि मूल्यवान् वस्तुओं का विनियोग योग्य पात्र में ही होता है, जिसमें 'स्व' और 'पर' दोनों का हित हो। यदि आभूषण बनाना है तो स्वर्णकार को ही देंगे, कुम्हार को नहीं, क्योंकि स्वर्णकार ही इसके योग्य है, वही उस स्वर्ण को सुन्दर आभूषण के रूप में परिवर्तित कर सकता है। चाहे सत्ता हो, सम्पत्ति हो या विद्या हो, अधिकृत व्यक्ति को प्रदान करेंगे तो ही फलदायी होगी। योगशतक में हरिभद्रसूरि ने कहा है कि समस्त वस्तु में जो जीव जिस कार्य के योग्य हो, वह / उस कार्य में उपायपूर्वक प्रवृत्ति करे तो अवश्य ही सिद्धि मिलती है। उसी प्रकार योगमार्ग या अध्यात्म : . मार्ग से विशेष सिद्धि प्राप्त होती है। उदाहरण के लिए एक शिष्य को गुरु के द्वारा दुर्गुणों को दिखाने वाला मंत्रित दण्ड दिया गया। उसने उसे सर्वप्रथम अपने गुरु पर ही अपनाया और दुर्गुणों को जानकर उसने अपने गुरु को ही छोड़ दिया। बाद में अहंकार के वशीभूत उसका भी पतन हो गया। इसीलिए प्रायः ग्रंथ के आरम्भ में उसके अधिकारी का भी निर्देशन होता है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्म के अधिकारी में तीन गुण होना जरूरी बताया है - 1. अलग-अलग नयों के प्रतिपादन से उत्पन्न हुई कुविकल्पों के कदाग्रह से निवृत्ति। 2. आत्म-स्वरूप की अभिमुखता। 3. स्याद्वाद का स्पष्ट और तीव्र प्रकाश / इन तीनों योग्यता द्वारा आत्मा में क्रमशः हेतु, स्वरूप और अनुबंध की शुद्धि होती है। यशोविजय ने अध्यात्म के अधिकारी के रूप में मुख्य रूप से माध्यस्थ गुण जरूरी बताया है। दार्शनिक, साम्प्रदायिक एवं स्नेह-रागादि से मुक्त आत्मा में अध्यात्म शुद्ध रूप में ठहर सकता है। अध्यात्म के लिए कदाग्रह का, त्याग का महत्त्व देने का कारण यह है कि अध्यात्म मात्र तर्क का विषय नहीं है अपितु अनुभूति का विषय है। अनुभूति और श्रद्धा के लिए सरलता जरूरी है। कुविकल्प के दो प्रकार हैं1. आभिसंस्कारिक कुविकल्प, 2. सहज कुविकल्प। 87 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org