Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ तथा उसकी स्वानुभूति उस साधक पुरुष के पास जब तक रहेगी, तब तक स्वाध्याय, शासन प्रभावना, विहार, भिक्षाटन तथा निद्रा आदि अवस्थाओं में भी उस साधक पुरुष में अनासक्ति-असंग-अनुष्ठान का जो भी भाव रहेगा, वही समभिरूढ़ नय के मतानुसार अध्यात्म कहा जायेगा। एवंभूत नय की दृष्टि में अध्यात्म इस नय की दृष्टि में जब आत्मा को लक्ष्य करके पंचाचार का सम्यक् रीति से पालन होता है, तब ही वह अध्यात्म होता है, अन्यत्र नहीं, क्योंकि आत्मकेन्द्रित पंचाचार के पालनरूप अध्यात्म शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ यही है। इसलिए जीव में जब तक आत्मकेन्द्रित पंचाचार का सम्यक् परिपालन नहीं हो, तब तक उसमें अध्यात्म का स्वीकार नहीं हो सकता। निश्चय एवं व्यवहारनय की दृष्टि से अध्यात्म / व्यवहार और निश्चय का झगड़ा बहुत पुराना है। भगवान् महावीर ने दोनों रूपों का समर्थन किया और अपनी दृष्टि से दोनों को यथार्थ बताया है। इस लोक में जिस वस्तु के लिए जैसा व्यवहार होता है अर्थात् लोक में जो वस्तु जिस प्रकार से प्रसिद्ध हो, उसके आधार पर वस्तु का प्रतिपादन व्यवहारनय करता है। जैसे कौए में पांचों वर्ण रहने पर भी लोक में कौआ काला है-ऐसी कौए की प्रसिद्धि है। इसलिए व्यवहारनय यही स्वीकारता है कि कौआ काला है। निश्चयनय तात्विक अर्थ को स्वीकारता है। पदार्थ के सूक्ष्म रूप का ज्ञान होता है। निश्चयनय के अनुसार कौआ केवल काला ही नहीं है, कौए का शरीर बादरस्कन्धक रूप होने से यहाँ पांचों ही वर्ण वाले पुद्गलों से बना हुआ है इसलिए निश्चयनय के अनुसार तो कौआ पांच वर्ण वाला है, ऐसा ही मानता है। वैसा ही दूसरा उदाहरण है कि जब भगवान महावीर एवं गौतम के बीच एक संवाद हुआ था, तब गौतम महावीर से पूछते हैं-भगवन्! पतले गुड़ (फाणित) में कितने वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं? महावीर उत्तर देते हैं-गौतम! इस प्रश्न का उत्तर दो नयों से दिया जा सकता है। व्यवहार नय दृष्टि से वह मधुर है और नैश्चयिक नय की अपेक्षा से वह पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श वाला है। इसी प्रकार गंध, स्पर्श आदि से संबंधित अनेक विषयों को लेकर व्यवहार और निश्चय से उत्तर दिया है। इन दोनों दृष्टियों से उत्तर देने का कारण यह है कि व्यवहार को भी सत्य मानते हैं। परमार्थ के आगे व्यवहार की उपेक्षा नहीं करना चाहते थे। व्यवहार और परमार्थ दोनों दृष्टियों को समान रूप से महत्त्व देते थे। व्यवहारदृष्टि और निश्चयदृष्टि में यही अन्तर है कि व्यावहारिक दृष्टि इन्द्रियाश्रित है, अतः स्थूल है जबकि नैश्चयिक दृष्टि इन्द्रियातीत है, अतः सूक्ष्म है। एक दृष्टि से पदार्थ के स्थूल रूप का ज्ञान होता है और दूसरी से पदार्थ के सूक्ष्म रूप का, दोनों दृष्टियां सम्यक् हैं। दोनों यथार्थता को ग्रहण करती हैं फिर भी जहाँ निश्चयनय स्वयं के आश्रित होता है, वहीं व्यवहारनय पराश्रित होता है।) ___वस्तु का जैसा स्थूल रूप होता है, वैसे ही सूक्ष्म रूप भी होता है। स्थूल रूप को समझने के लिए हम स्थूल सत्य या व्यावहारिक दृष्टि को काम में लेते हैं। जैसे मिश्री की डली को हम सफेद कहते हैं। यह चीनी से बनती है, यह भी कहते हैं। अब निश्चय की बात देखिए, उस दृष्टि के अनुसार 83 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org