Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ उपाध्याय यशोविजय का अध्यात्मवाद भूमिका मानव जाति को दुःखों से मुक्त करना ही सभी साधना-पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य रहा है। उन्होंने इस तथ्य को गहराई से समझने का प्रयत्न किया कि दुःख का मूल किसमें है। इसे स्पष्ट करते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि समस्त भौतिक एवं मानसिक दुःखों का मूल व्यक्ति की भोगासक्ति में है। यद्यपि भौतिकवाद मनुष्य की कामनाओं की पूर्ति के द्वारा दुःखों के निवारण का प्रयत्न करता है, किन्तु वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर सकता, जिससे यह दुःख का स्रोत प्रस्फुटित होता है। भौतिकवाद के पास मनुष्य की तृष्णा को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। वह इच्छाओं की पूर्ति के द्वारा मानवीय आकांक्षाओं से परितृप्त करना चाहता है, किन्तु वह अग्नि में डाले गये घृत के समान उसे परिशान्त करने की अपेक्षा और अधिक बढ़ाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में बहुत ही स्पष्ट शब्द में कहा गया है कि चाहे स्वर्ण और रजत के कैलाश के समान असंख्य पर्वत भी खड़े हो जाएं, किन्तु वे मनुष्य की तृष्णा को तृप्त करने में असमर्थ हैं। न केवल जैन धर्म अपितु सभी धर्मों ने एकमत से इस तथ्य को स्वीकार किया है कि समस्त दुःखों का मूल कारण आसक्ति या तृष्णा या ममत्व बुद्धि है। किन्तु तृष्णा की समाप्ति का उपाय इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं है। भौतिकवाद, हमें सुख और सुविधा के साधन तो दे सकता है किन्तु मनुष्य की आसक्ति या तृष्णा का निराकरण नहीं कर सकता है। इस दिशा में उसका प्रयत्न टहनियों को काटकर जड़ों को सींचने के समान है। जैन आगमों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तृष्णा आकाश के समान अनन्त है, उसकी पूर्ति संभव नहीं है। यदि हम मानव जाति को स्वार्थ, हिंसा, शोषण, भ्रष्टाचार एवं तज्जनित दुःखों से मुक्त करना चाहते हैं तो हमें भौतिकवादी दृष्टि का त्याग करके आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करना होगा। अध्यात्मवाद क्या है? यहाँ हमें समझ लेना होगा कि अध्यात्मवाद से हमारा तात्पर्य क्या है? अध्यात्म शब्द की व्युत्पत्ति अधि + आत्म से है। अर्थात् वह आत्मा की श्रेष्ठता एवं उच्चता का सूचक है। आचारांग में इसके लिए अज्झप्प या अज्झत्थ शब्द का प्रयोग है, जो आन्तरिक पवित्रता या आन्तरिक विशुद्धि का सूचक है। जैन धर्म के अनुसार अध्यात्मवाद वह दृष्टि है, जो यह मानती है कि भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है। दैहिक एवं आर्थिक मूल्यों से परे उच्च मूल्य भी है और इन उच्च मूल्यों की उपलब्धि ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। जैन विचारकों की दृष्टि में अध्यात्मवाद का अर्थ है-पदार्थ को परममूल्य न मानकर आत्मा को परम मूल्य मानना। भौतिकवादी दृष्टि मानवीय दुःख और सुख का आधार वस्तु को मानकर चलती है। उसके अनुसार सुख और दुःख वस्तुगत तथ्य हैं। मनुष्य भौतिकवादी सुखों की लालसा में वस्तुओं के पीछे दौड़ता है और उनकी उपलब्धि हेतु चोरी, शोषण एवं संग्रह जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता है। इसके विपरीत जैन अध्यात्मवाद हमें यह सिखाता है कि सुख और दुःख का केन्द्र वस्तु में न होकर आत्मा में है। जैन दर्शन के अनुसार सुख और दुःख आत्मकृत हैं अतः वास्तविक आनन्द की उपलब्धि पदार्थों 74 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org