Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ उपाध्याय यशोविजय द्वारा गृहीत सामान्य अर्थ उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्म का रूढ़ अर्थ इस प्रकार बताया है कि सद्धर्म के आचरण से बलवान बना हुआ तथा मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ भावना से युक्त निर्मल चित्त ही अध्यात्म है।' दूसरे प्राणियों के हित की या कल्याण की चिंता करना-यह मैत्री भावना कहलाती है। परोपकाराय सतां विभूतयः-सज्जन व्यक्ति को भी जो मानसिक, शारीरिक या आर्थिक सम्पत्ति प्राप्त होती है, वह हमेशा दूसरों पर उपकार करने के लिए होती है।" कोई भी प्राणी पाप न करे। कोई भी जीव दुःखी न हो और सारा जगत् बंधन से मुक्त हो, मुक्ति को प्राप्त करे। इस प्रकार की बुद्धि मैत्री-भावना कहलाती है। क्षमा मांगना और क्षमा करना, यह जैन शासन की शुद्ध नीति है।" अतः अध्यात्म की प्रथम सीढ़ी मैत्री भावना है। ...साथ ही पर-दुःखनाशक परिणति, अर्थात् दूसरों के दुःख को दूर करने की इच्छा करुणा कहलाती है। करुणाभावना से युक्त व्यक्तियों की दृष्टि बहुत विशाल होती है। आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना से वे अपने ही समान सभी प्राणियों को देखते हैं। दूसरों का दुःख देखकर उनका मन द्रवित हो जाता है और उनके दुःखों को किस प्रकार दूर करना है, यह विचार बार-बार आता है। प्रायः इसी कारुण्य भावना को भाते हुए तीर्थंकर जैसे श्रेष्ठ मनुष्यों को भी नामकर्म का बंध होता है। करुणा का दोहरा लाभ है। वह करने वाले एवं जिस पर करुणा की जाती है-दोनों को सुख प्रदान करती है। करुणा में दोनों को लाभ होता है। - पर-सुख तुष्टिर्मुदिता-दूसरों के सुख में आनन्द अर्थात् गुणवानों के गुणों और उनके आचरण को देखकर हृदय में जो हर्ष उत्पन्न होता है, उसे प्रमोदभावना कहते हैं। प्रमोदभावना भाते समय अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है। गुणों को प्राप्त करने का यह सीधा उपाय है कि महान् पुरुषों के जिन गुणों को प्राप्त कर लिया हो, उनकी हृदय से अनुमोदना करना। प्रमोद भावना से गुणों की प्राप्ति होती है और अनुमोदना करते समय अगर वह गुण अपने में ही है, तो चित्त अधिक स्वच्छ एवं निर्मल बनता है। - परदोषोक्षेपणमुपेक्षा-असाध्य कक्षा के दोष वाले जीवों पर करुणायुक्त उपेक्षादृष्टि रखना माध्यस्थ भावना है। जब उपदेश देने पर भी सामने वाला व्यक्ति महापाप के उदय से रास्ते पर नहीं आता है, तो फिर उसके प्रति उपेक्षा रखना ही अधिक उचित है। हितोपदेश नहीं सुनने वालों पर भी द्वेष नहीं करना चाहिए। उपाध्याय यशोविजय ने द्वेष की सज्झाय में कहा है कि-गुणवान के प्रति आदर-भाव एवं निर्गुण के प्रति समचित्त रखना चाहिए। माध्यस्थभावना सांसारिक प्राणियों के विश्रांति लेने का स्थान है। यहाँ भावनाओं के आधार पर अध्यात्म का यथार्थ स्वरूप दिखाया है। नैगमादि सप्तनयों की अपेक्षा से अध्यात्म का महत्त्व __यहाँ विभिन्न नयों की अपेक्षा से अध्यात्म स्वरूप का विवेचन करने से पहले नयों के स्वरूप को समझ लेना आवश्यक है। वक्ता के अभिप्राय को समझने के लिए जैन आचार्यों ने नय एवं निक्षेप ऐसे 78 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org