Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ 'स्याद्वाद कल्पलता हरिभद्रसूरि द्वारा रचित शास्त्रवार्ता समुच्चय पर उपाध्याय यशोविजय ने स्याद्वाद कल्पलता नामक टीका की रचना करके इस ग्रंथ की शोभा में चार चांद लगा दिए हैं। मूल ग्रंथ का विवरण करते हुए उपाध्यायजी ने स्वतंत्र रूप से अपनी व्यवस्था में प्राचीन एवं नव्यन्याय में प्रसिद्ध अनेक वाद स्थलों का अवतरण किया है। वादस्थली की विस्तृत चर्चा से यह व्याख्या ग्रंथ भी एक स्वतंत्र ग्रंथ जैसा बन गया है। मूल शास्त्रवार्ता समुच्चय ग्रंथ को 11 विभागों में विभक्त करके प्रत्येक विभाग में भिन्न-भिन्न दर्शनों के अनेक सिद्धान्तों का विस्तार से पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर अनेक नवीन युक्तियों से अनेक पक्ष को उपस्थित किया गया है। यह अतीव बोधप्रद एवं आनन्ददायक है। प्रथम स्तबक में भूत चतुष्ट्यात्मवादी नास्तिक मत का खण्डन है। दूसरे में काल, स्वभाव, निर्यात और कर्म-इन चारों की परस्पर निरपेक्ष कारणता के सिद्धान्त का खण्डन है। तीसरे न्यायवैशेषिक में ईश्वर कर्तव्य का और संख्याभिमत प्रकृति पुरुष का खंडन है। चतुर्थ में बौद्ध सम्प्रदाय में सौत्रान्तिक मत सम्मत क्षणिक्य में बाधक स्मरणाधनश्रुति दिखाकर क्षणिक बाध्यार्थवाद का खण्डन है। पंचम में योगाचार अभिमत क्षणिक विज्ञानवाद का खण्डन है। छटे में क्षणिकत्य साधन हेतुओं का खण्डन, निराकरण दिया गया है। सातवें में जैनमत में स्याद्वाद सिद्धान्त का सुन्दर निरूपण किया गया है। आठवें में वेदान्ती अभिमत अद्वैतवाद का खण्डन विस्तार से बताया है, नवें में जैनागमों के अनुसार मोक्षमार्ग की मीमांसा दी है। दसवें में सर्वज्ञ के अस्तित्व का समर्थन किया गया है। ग्यारहवें में शास्त्रप्रमाण्य को स्थिर करने के लिए शब्द और अर्थ के मध्य सम्बन्ध नहीं मानने वाले बौद्ध मत का प्रतिकार किया गया है। इन सभी स्तबकों में मुख्य विषय के निरूपण के साथ अनेक अवान्तर विषयों का भी निरूपण किया गया है, जिसमें अन्त में स्त्रीवर्ग की मुक्ति का निषेध करने वाले जैनाभास दिगम्बर मत की गम्भीर आलोचना की गई है। उपाध्यायजी ने अपनी स्याद्वाद कल्पलता में जैनेतर दार्शनिकों के अनेक मतों की बड़ी गहरी समीक्षा की है। स्याद्वाद रहस्य . हेमचन्द्रसूरि के वीतरागस्तोत्र के आरम्भ में अन्तर्विहित रहस्य द्योतनार्थ एवं उसके अन्तर्गत शान्तरस का आश्वादन करने के लिए उपाध्याय यशोविजय ने स्याद्वाद रहस्य प्रकरण बनाया। अष्ट प्रकाश को नव्यन्याय की परिभाषा से परिप्लावित करने के लिए यशोविजय के हृदय में इतनी उमंग और उल्लास हुआ कि उसी के फलस्वरूप उन्होंने इसी अष्टम प्रकाश पर जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट परिमाण वाले स्याद्वाद रहस्य नाम के तीन प्रकार रचे और स्याद्वाद का सूक्ष्म रहस्य प्रकट किया है। उनकी साहित्य-साधना का विशिष्ट परिचय उनकी साहित्य-साधना के इस संक्षिप्त परिचय से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने विविध विषयों पर विविध भाषाओं में ग्रंथों की रचना की है। इससे उनकी बहुश्रुतता का पता चलता है। इस संक्षिप्त विवरण के अवलोकन से यह भी स्पष्ट होता है कि उन्होंने न केवल जैन धर्म, दर्शन और साधना की विविध विधाओं पर अपने ग्रंथ की रचना की और टीकाएं लिखीं, अपितु योगसूत्र पर भी टीका लिखी। जहां एक ओर वे दर्शन की अतल गहराइयों में उतरकर नव्यन्याय की शैली में स्वपक्ष 65 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org