Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ में सागर-सी उदित को सार्थक करता है। योगविंशिका प्रकरण जिसके बीस श्लोकों पर महोपाध्याय यशोविजय ने टीका लिखकर उसमें रहस्य को प्रकाशित किया है। इस ग्रन्थ में उपाध्याय ने योग की व्यवस्था तथा योग में भेद-प्रभेदों को विविध प्रकार से बताये हैं। मोक्ष साधक प्रत्येक अनुष्ठान योग कहलाता है तथा आचार पालन में शुद्धि और स्थिरता उत्पन्न करने वाला बनकर पांच प्रकार के योग कहे जाते हैं। इन पांच योगों को दो भागों में विभाजित करके प्रथम के दो को क्रियायोग तथा अन्तिम तीन योग को ज्ञानयोग कहा है। स्थानादि योगों के सेवन इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता और सिद्धि की अपेक्षा से चार प्रकार के होते हैं अतः योग के कुल छः भेद भी प्रीति, भक्ति, वचन और असंग अनुष्ठान की अपेक्षा से उत्तरोत्तर विशुद्ध बनते हैं। इस प्रकार मूल 80 भेद होते हैं। . स्थानादि पांच योगों के लक्षण के साथ ही टीकाकारजी ने प्रणिधि, प्रवृत्ति, विघ्नजय, सिद्धि और विनियोग पांच आशयों का अलग-अलग अपेक्षा से निरूपण दिया है तथा चार अनुष्ठान का भी सुन्दर विवेचन किया है। चैत्यवंदनादि प्रत्येक क्रिया में स्थानादि योगों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए, जिससे धर्मक्रिया अमृत अनुष्ठान बनकर शीघ्र मोक्षफल देने में समर्थ बने। ये स्थानादि योगों में निरन्तर अभ्यास करने / से आलम्बन योग में प्रवेश होता है। __ आलम्बन योग, ध्यानयोग और अनालम्बन योग समता समाधिरूप है। इसमें विशेष स्थिरता होने पर वृतिसंक्षय योग भी प्राप्त होता है, जिससे आत्मा परम निर्वाण पद को प्राप्त करती है। अन्य दर्शनाकारों ने इसी योग को अन्य नामों से बताया है, जिसमें टीकाकार उपाध्याय महाराज ने अपनी टीका में उसका उल्लेख किया है। इस ग्रंथ में यह भी स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है कि प्रत्येक अनुष्ठान की तीर्थ उन्नति का कारण है अतः विधि का ही उपदेश देना चाहिए तथा साथ ही गाम्भीर्यपूर्ण तीव्रभावों से अविधि का निषेध भी नितान्त रूप से करना चाहिए। अविधि पूर्वक करने वाले अनेक होने पर भी तीर्थ का उच्छेद हो सकता है और विधिपूर्वक क्रम ही आराधक का अनुष्ठान तीर्थ उन्नति का कारण बनता है। योगविंशिका में मोहसागर तैरने की एक सुन्दर पद्धति परिष्कृत की है। सदनुष्ठान हितकारी बतलाते हुए योगविधि के अंग में संयुक्त किया है। योग एक ऐसा विषय है, जिस पर युगों-युगों से आस्था रही है और व्यवस्था भी पुरातन काल से चली आ रही है। आचार्य हरिभद्र योगविद्या के महान् बनकर योग-अनुष्ठानों में प्रीति को और भक्तिभाव को प्रदर्शित करके सम्पूर्ण योगमय जीवन को सप्रतिष्ठित बनाते हैं और योगविंशिका जैसे ग्रंथ में योगविद्या की महत्ता का प्रतिपादन कर अपनी योगानुशासन जीवन क्रमता का परिचय देते हैं। योग को मोक्ष का योजक बताते हुए विशुद्ध धर्म व्यापार में मिश्रित कर दिया, यही उनकी योगशीलता सर्वमान्य बनी है। योगविंशिका ग्रंथ पर पं. अभयशेखर विजय का गुजराती भाषान्तर है तथा पं. धीरजलाल, दयालाल मेहता का भी सुन्दर सुबोधगम्य गुजराती भाषान्तर है। इस ग्रंथ पर संस्कृत टीका उपाध्यायजी महाराज ने लिखी है। 64 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org