Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ द्वितीयवाद में अनुमति के विषयरूप पक्ष एवं हेतु होना चाहिए या नहीं, इस बात का उल्लेख किया है। तृतीय द्रव्यनाश हेतुवाद में निमितेतरकारणनाशचेन द्रव्यनाशकता का स्वीकार करने वाले प्राचीन नैयायिक के मंतव्य के खिलाफ असमवायि कारणनाश से द्रव्यनाश का स्वीकार करने वाले नवीन नैयायिक के मत का सयुक्ति प्रतिपादन किया है। चतुर्थ सुवर्णतेजतत्वाऽतेजमत्यवाद भी विद्वानों के लिए अनुपम आकर्षण का स्थान बनता है। यह नैयायिक एवं स्याद्वादी के बीच में है कि परदर्शनीय-परदर्शनी के बीच! अतएव यह वादस्थल अद्भुत आकर्षण का केन्द्र बनता है। नैयायिक सुवर्ण आदि धातु को तेजस् मानते हैं जबकि स्याद्वादि सुवर्ण आदि धातु को पार्थिव मानते हैं। गंगेश उपाध्याय के तत्वचिंतामणि ग्रंथा। में प्रत्यक्ष खंड में प्रत्यक्षकारणवापद में सुवर्ण तेजस हैं। इस विषय का विस्तार से निरूपण किया है, जिसका प्रतिपादन एवं परिहार श्रीमदजी ने यहां अकाट्य युक्ति में बल से किया है। पंचमवाद में अंधकार भावरूप है या अभावरूप इस प्रश्न की चर्चा की है। मीमांसक अंधकार को भावरूप मानते हैं। छठे वाद में वायु स्पर्शन है या नहीं, इस बात की चर्चा की है। शब्द नित्य है या अनित्य, इस बात की चर्चा सातवें वाद में की है। मीमांसक शब्द को नित्य मानते हैं एवं नैयायिक शब्द को अनित्य मानते हैं। उल्लेख-तीन वादमाला पैकी ये वादमाला का उल्लेख अष्ट सहस्त्री विवरण में है। विवृत्ति-वादमाला यह तीर्थोद्धारक विजय नेमिसूरि ने 72 पत्र पूरती विस्तृत विवृत्ति संस्कृत में गद्य में वि.सं. 1998 में भावनगर में रची है। प्रारम्भ में मंगलाचरण में एक पद्य है, उसके द्वारा महावीर स्वामी को वंदन किया है। उनमें सात पद्यों की प्रशस्ति है। इसमें दूसरा, तीसरा एवं चौथे पद्य में उपर्युक्त सात वादों को अनुपम दर्शाया है। वादमाला नाम की एक संस्कृत कृति की 6 हस्तप्रतियां मिलती हैं। नव्यन्याय की शैली का प्रारम्भ निम्न श्लोक से हुआ है ऐन्द्रश्रेणिनंतं नत्वा सर्वज्ञं तत्वदेशिनम्। बलानुमुपकाराय वादमाला निबद्धते।। इनके बाद तथा प्राचो गुम्फो से शुरू होता दूसरा पद्य एवं वादमालाभियां बाला से शुरू होता पद्य है। उनके बाद का विवेचन गद्य में है। स्वत्ववाद-यह वादमालागत प्रथमवाद है। स्वत्व यानी स्वामित्व नहीं के अन्य पदार्थ। लगभग 400 श्लोक जितना स्वत्ववाद प्रयोगमाला में भी देखने को मिलता है। उनके बाद अथ सन्निकर्ष ऐसा उल्लेख है। उससे पता चलता है कि सन्निकर्षवाद भी उनके बाद दिया गया है। यह वाद माला अपूर्ण एवं दूसरी वादमाला अनुपस्थ है, ऐसा उल्लेख यशोदोहन में किया गया है। अतः हम कह सकते हैं कि इस ग्रंथ के पठन-पाठन से पाठकवर्ग अपनी बुद्धि को अनेकान्तवाद परिकर्मित बनाकर शीघ्र आत्मप्रेय श्रेय को प्राप्त करता है। अतः यह ग्रंथ उपादेय है। 60 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org