Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ प्रस्तुत ग्रंथ पर पूज्य आचार्य लावण्यसूरिकृत टीका रत्नाप्रभावृत्ति की भी रचना हुई है एवं पं. सुखलालजी ने प्रस्तुत ग्रंथ के सन्दर्भो विशेषावश्यक भाष्यवृत्ति, स्याद्वाद रत्नाकर आदि ग्रंथों में जहाँ से भी मिला, वहाँ से करके तात्पर्यसंग्रहा वृत्ति की भी रचना की है। मूल ग्रंथ का गुर्जर भावानुवाद भी प्रस्तुत ग्रंथ में उपलब्ध है। इस प्रकार यह ग्रंथ अत्यन्त उपादेय बन गया है। गुरुतत्त्व विनिश्चय यशोविजय ने मूल ग्रंथ प्राकृत में 105 गाथा का रचा। उस पर स्वयं ने ही संस्कृत गद्य में 7000 श्लोक परिमाण में टीका लिखी। इस ग्रंथ में कर्ता ने गुरुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप का निरूपण चार उल्लास में किया है। प्रथम उल्लास में सात बातों का विवेचन किया है, जैसे गुरुमहाराज का प्रभाव कैसा होता है? गुरुकुलवास का प्रभाव क्या? गुरु कैसा हो? शुद्धाशुद्ध भाव का कारण क्या हो सकता है? भावशुद्धि कैसे होती है? प्रथम उल्लास में व्यवहार एवं निश्चिय दृष्टि का स्वरूप खंडन-मंडन करके दिखाया है। केवल निश्चयवादी स्वमत की पुष्टि के लिए कैसी-कैसी दलील करते हैं? सिद्धान्ती निश्चयवाद का किस तरह से खण्डन करता है। इन सात बातों का स्पष्ट उल्लेख प्रथम उल्लास में किया गया है। दूसरे उल्लास में गुरु का लक्षण दिखने वाले सद्गुरु व्यवहारी, व्यवहर्तव्य, व्यवहार के पांच भेद, प्रायश्चित्त, उनको लेन-देने के अधिकारी, व्यवहार धर्म का पालन करने वाले सुगुरु का महत्त्व दर्शाकर व्यवहार धर्म का कैसे आचरण करना उनका वर्णन है। तीसरे उल्लास में उपसंपत की विधि, कुगुरु की प्ररूपणा, पार्श्वस्थ आदि का स्वरूप दिखाकर कुगुरु का त्याग एवं सुगुरु की सेवा की बात बताई है। चौथे उल्लास में पांच निग्रंथों का स्वरूप छत्तीस द्वार के माध्यम से दिखाया गया है। मलयगिरिसूरि ने आवस्सयं एवं उनकी नियुक्ति पर अपनी कृति में ऐसा विधान किया है कि नयवाक्य में स्यात् शब्द का प्रयोग करने से शेष धर्मों का संग्रह हो जाता है। ऐसे समस्त वस्तु का ग्राहक बनने से वो नय न रहकर प्रमाण बन जाता है, क्योंकि नय तो एक ही धर्म का ग्राहक होता है। इस मान्यता के अनुसार सर्व नय एकान्त के ग्राहक से मिथ्यारूप हैं। इस मान्यता की आलोचना गुरुतत्त्वविनिश्चय की स्वोपज्ञ टीका में निम्न की है नयान्तर सापेक्ष नय का प्रमाण में अंतभाव करने से व्यवहार नय को प्रमाण गिनना पड़ेगा, क्योंकि यह व्यवहार नय निश्चय की अपेक्षा रखता है। इसी तरह चार निक्षेप को विषय बनाने वाला शब्दनय भी भाव विषयक शब्दनय की अपेक्षा रखने के कारण प्रमाण बन जाता है। प्रथम बात तो यही है कि नयवाक्य में स्यात् पद प्रतिपक्षी नय विषय की सापेक्षता उपस्थित करता है या नहीं या अन्य अनन्त 46 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org