Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ श्री समवायांग के 34 अतिशयों में दिखाया है कि परमात्मा के आहार एवं निहार को चर्मचक्षु वाले जीव देख नहीं सकते। ऐसी सचोट बातें दिखाकर दिगम्बरों ने साबित किया है कि केवलियों को कवलाहार नहीं होता है। तब उपाध्याय कह रहे हैं कि अगर परमात्मा को कवलाहार नहीं मानते तो तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने केवली के 11 परीषह दिखाये हैं। इनमें क्षुधा परिषह भी आता है तो वो कैसे घटेगा? इस प्रकार के अनेक प्रश्नों का उत्तर प्रमाण के साथ देकर उपाध्याय ने दिगम्बरों की मान्यता का खंडन करके सिद्ध किया है कि केवली को कवलाहार होता है। केवली को कवलाहार होता है, इस बात की पुष्टि करने के लिए उपाध्याय कह रहे हैं कि ओरालिअदेहस्स य ठिई अ पुड्ढी य णो विणाहारं। तेणावि य केवलिणो केवलाहारितणं जुतं / / " . औदारिक शरीर की स्थिति एवं वृद्धि आहार के बिना नहीं होती है इसलिए भी केवली को कवलाहार होता है, यह बात सिद्ध है। जैसे औदारिक शरीर की स्थिति आहार प्रयोजक अशातावेदनीयादि कर्म के अन्वय व्यतिरेक के अनुसार है, वैसे आहार पुद्गलों के अन्वय व्यतिरेक को भी अनुसरता है तो फिर केवली का शरीर पूर्वक्रोड वर्ष तक कवलाहार के बिना कैसे टिकेगा! वैसे ही औदारिक शरीर की वृद्धि भी आहार पुद्गलों से ही होती है, क्योंकि पुद्गलों से ही पुद्गलोपच्य होता है, ऐसा शास्त्र में कहा है। इसलिए केवली को कवलाहार आवश्यक है। अगर केवली को कवलाहार मानने में न आये तो जिसको नवमें वर्ष में केवलज्ञान होता है, वो महर्षि पूर्वकोटि वर्ष तक छोटे बालक जितना ही रहेगा, यह अनुचित है। अतः सिद्ध होता है कि केवली को कवलाहार होता है। . दिगम्बरों की दूसरी मान्यता थी कि तीर्थंकरों का परम औदारिक शरीर धातुरहित होता है। वो श्लोक के माध्यम से बताते हैं परमोरालिअरेहो केवलिणं नणु हवेज्ज मोहखए। रूहिराइधारहिओ तेअभओ अष्भपडल च।।। ___ मोहक्षय होने के कारण केवलियों का शरीर रुधिरादि धातुओं से रहित अभपटल जैसा तेजोमय परमोदारिक शरीर हो जाता है। उनका जवाब देते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि केवलियों का पूर्वावस्था जैसा ही शरीर होता है। छद्मावस्था का जो शरीर होता है, वो ही शरीर केवली अवस्था में भी रहता है, उसमें कोई नया अतिशय उत्पन्न नहीं होता है। केवली का औदारिक शरीर धातुरहित होता है, ऐसी दिगम्बर की मान्यता का खण्डन करते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि संघयणणामपगइ केवलिरहस्स धाउरहिअते। पोग्गलाणिनागिणी कह अतारिसे पोग्गले होउ।। जो अगर केवली को देह धातुरहित हो तो संघयण नाम प्रकृति का विपाकोदय के योग्य पुद्गल न होने से केवली को उस प्रकृति का पुद्गल विपाक कैसे होगा? ऋषभ नाराच संघयण नामकर्म प्रकृति पुद्गल विपाकनी है, जिसका अस्थि के पुद्गल में भी विपाक होता है। केवली का शरीर सात धातु से रहित होने में अस्थिशून्य भी मानना पड़ेगा। अगर अस्थिशून्य मानेंगे तो केवली की उस प्रकृति का विपाकोदय कैसे होगा? 49 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org