Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ महा उपाध्याय यशोविजय जितने विद्वान थे, उतने ही विनयशील। उनकी गुरुभक्ति पराकाष्ठ की थी। उन्होंने विनय से अपने गुरु का हृदय जीत लिया था। गुरु-शिष्य के हृदय में वास करे, यह बात साधारण है, परन्तु गुरु के हृदय में शिष्य बस जाए, यह शिष्य के लिए बहुत बड़ी विशेषता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उपाध्याय यशोविजय हैं। उनके गुरु नयविजय ने यशोविजय की कितनी ही कृतियों की हस्तप्रतियाँ लिखकर तैयार की। जैसे द्वादसार नयचक्रम, द्वात्रिंशद, द्वात्रिंशिका आदि ग्रंथों की शुद्ध नकल तैयार करने में भी सहयोग दिया एवं वैराग्य कल्पलता, नयरहस्य, प्रतिमा शतक आदि ग्रंथों की नकल आज भी उपलब्ध होती है। यशोविजय के अध्ययन आदि के लिए भी बहुत सारी नकलें तैयार की थीं। गुरु स्वयं के शिष्य की कृतियों की हस्तप्रतियाँ तैयार कर दे, ऐसा कोई अन्य उदाहरण देखने में नहीं आता है। इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि गुरु-शिष्य का संबंध कितना आदर वाला होगा। ऐसा गुणभण्डार गुरु के प्रति श्री यशोविजय की भक्ति भी अपूर्व एवं अखण्ड थी। तभी तो प्रसंग-प्रसंग में उनके मुंह से शब्द निकलते थे कि "अखण्डता भकिश्चेन्नयविजय विज्ञाहि भजने"39 एवं "ते गुरुना गुण गाई शकु केम गावाने गहगहिओ रे हमचडी" आदि वाक्यों में निकलते थे। ऐसे गुरु शिष्य की जोड़ी के लिए अन्तर में स्नेह, वात्सल्य एवं भक्ति करके कितने खुश होते होंगे, वो तो ज्ञानी ही जान सकते हैं। उनकी उत्कृष्ट गुरु-भक्ति एवं समर्पण के कारण ही वे ज्ञान को पचा सके। गुरु-भक्ति पाचकचूर्ण का काम करती है। यशोविजय ने अध्यात्मसार के अन्तिम सज्जनस्तुति अधिकार में 15वें श्लोक में नयविजय की महिमा को कितने भक्तिभाव पूर्वक मनोहर कल्पना करके दर्शाया है, यह ध्यान देने योग्य है। अतः हम कह सकते हैं कि महोपाध्याय श्री नयविजय महाराज एवं श्री यशोविजय महाराज-यह . गुरु शिष्य की जोड़ी अभेदभाव का शुद्ध प्रतीक है। गुणानुराग एवं विनय "लघुता में प्रभुता" यह यशोविजय की एक विशेषता थी। उनमें गुणानुराग भी उत्कृष्ट कोटि का था। यशोविजय और आनन्दघनजी दोनों समकालीन थे। एक प्रचण्ड तेजस्वी विद्वान् और दूसरा गहन आत्मानुभवी एवं अध्यात्मपथ का साधक था। आनन्दघनजी के दर्शन के लिए यशोविजय अत्यन्त उत्सुक थे। जब इनका मिलन हुआ तब यशोविजय को बहुत आनन्द हुआ। यह घटना ऐतिहासिक और निर्विवाद है। उपाध्याय यशोविजय द्वारा आनन्दघनजी की स्तुति रूपी रची अष्टपदी इसका प्रमाण है। इसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं जसविजय कहे सुनो आनन्दघन, हम तुम मिले हजूर, आनन्द कोउ नहिं पावे, जोई पावे सोई आनन्दघन ध्यावे। आनन्द ठोर-ठोर नहीं पाया, आनन्द आनन्द में समाया, आनन्दघन आनन्दरस झीलता, देखत ही जस गुण गाया।। ऐ ही आज आनन्द भयो मेरे, मा तेरो सुख नरख, रोम-रोम शीतल भया अंगो अंग।। इत्यादि पंक्तियों से पता चलता है कि यशोविजय के मन में आनन्दघन के प्रति कितना आदर था। आनन्दघन के दर्शन का उसके जीवन पर कितना प्रभाव पड़ा, यह उन्होंने नम्रतापूर्वक दर्शाया है 12 For Personal Jain Education International www.jainelibrary.org Private Use Only