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इसलिए बालकों के समान कविता सरलता से समझ में नहीं आती । इसी तरह यह विशाल.लोक स्वरूप हम मंद बुद्धि वालों को सरलता से समझ में नहीं आता । इसलिए मैं उनके उपकारार्थ 'करण आम्नाय' अर्थात् परम्परागत सुना हुआ, धर्मानुशासन में रही कठिनता को दूर करके उसके विषय में कुछ यथामति अनुसार लिखता हूँ। (१०-११)
अयि प्रसन्नास्ते सन्तु सन्तः सर्वोपकारिणः । मयि प्रवृत्ते पुण्यार्थमविमृश्य स्व शक्यताम् ॥१२॥
यह प्रवृत्ति मैने पुण्यार्थ ही स्वीकार की है। मेरे में इस प्रवृत्ति के विषय में, जितनी चाहिए उतनी सामर्थ्य नहीं है। इसलिए. सर्व के ऊपर उपकार दृष्टि से देखने वाले संत महापुरुष मेरे पर भी प्रसन्न होकर उसी ही दृष्टि से देखना । (१२)
शिशु क्रीडागृह प्राया ममेयं वचसां कला । __ निवेश नीयास्तत्रामी कथमर्था द्विपोपमाः ॥१३॥
श्री गुरुणां प्रसन्नानामचिन्त्यो महिमाथवा । तेजः प्रभावादाद” किं न यान्ति धराधराः ॥१४॥
मेरी लेखन सामर्थ्य (पूंजी) बालकों के क्रीड़ागृह समान अल्प प्रमाण है। इसके अन्दर हाथी प्रमाण विस्तार वाले भावार्थ को किस तरह समावेश कर सकूँगा, इसका मुझे विचार आता है। परन्तु मेरे सदा कृपालु गुरु महाराज का अचिन्त्य प्रभाव है, उनके प्रभाव से सब कुछ हो सकता है। छोटे से दर्पण में महान् पर्वत समा जाता है- इस दर्पण के सहायक तेज के प्रभाव से ही होगा । (१३-१४).
संक्षिप्ताः संग्रहाः प्राच्या यथा ते सुपठा मुखे । तथा सविस्तरत्वेन सुबोधो भवतादयम् ॥१५॥
पूर्वाचार्यों ने अनेक संग्रह संक्षेप में लिखे हैं, वे जैसे अल्प प्रयास से मुख पाठ-कण्ठस्थ हो सकते हैं उसी ही तरह यह मेरा संक्षिप्त लेखन भी शीघ्र बोधदायक हो जाय । (१५)
लोक प्रकाशनामानं ग्रन्थमेनं विचक्षणाः ।
आद्रियध्वं जिनप्रोक्त विश्वरूप निरूपकम् ॥१६॥
जिनेश्वर भगवन्त कथित जगत् स्वरूप का मैं जिस विषय में कहने वाला हूँ वह यह 'लोक प्रकाश' ग्रन्थ सर्व पारदर्शी सज्जनों का सत्कार प्राप्त करे । (१६)