________________
(२)
कृपा कटाक्ष निक्षेप निपुणी कृत सेवकाः । भक्त व्यक्त सवित्री सा जयति श्रुत देवता ॥५॥
कृपामृत का छिड़काव करके जिसने अपने आराधक वर्ग को (ज्ञानमय ) सचेतन किया है वह भक्तवत्सल श्रुत (ज्ञान) देवी निरन्तर विजयी होती है । (५) जीयाज्जगद्गुरु विश्व जीवातु वचनामृत: ।
श्री हीर विजयः सूरिर्मदीयस्स गुरोर्गुरुः ॥६॥
अपनी उपदेशात्मक वाणी द्वारा सारे जगत् के लोगों को धर्म के विषय में जाग्रत रखने वाले मेरे गुरु के गुरु जगत् गुरु आचार्य श्री हीर विजय सूरीश्वर की सदा विजय हो । (६)
श्री कीर्ति विजयान् सूते श्री कीर्ति विजयाभिधः । शत कृत्वोऽनुभूवोऽयं मन्त्रः स्यादिष्ट सिद्धि दः ॥७॥
श्री- लक्ष्मी, कीर्ति और विजय प्राप्त करने वाले 'श्री कीर्ति विजय' मंत्र का जो मैंने अनेक बार अनुभव किया है, वे मेरे सर्व मन वांछित पूर्ण करो ।
अस्ति लोक स्वरूपं यद्वि प्रकीर्ण श्रुताम्बुधौ । परोपकारिभिः पूर्व पण्डितैः पिण्डयते स्म तत् ॥८॥
१ - द्रव्य लोक, २ - क्षेत्र लोक, ३- काल लोक और ४- भाव लोक इस तरह चार प्रकार के ‘लोक' का स्वरूप शास्त्र समुद्र में अलग-अलग स्थान पर वर्णन किया है । उसे पूर्व में हो गये परोपकारी पंडित जनों ने एक स्थान पर विशाल मात्रा में एकत्रित किया है। (८)
-
तत संक्षिप्य निक्षिप्तमाम्नायैः करणादिभिः ।
संग्रहण्यादि सूत्रेषु भूयिष्ठार्थ मिताक्षरम् ॥६॥
उसमें से उसे संक्षिप्त करके 'करण' आदि आम्नाय - प्राचीन परंपरागत आचार के अनुसार संग्रहणी आदि सूत्रों में दाखिल किया है। वह संक्षेप में है, फिर भी उसमें से अर्थ विस्तार युक्त निकलता है । (६)
साम्प्रतं चक्रमात्प्रायः प्राणिनो मन्दमेधसः । - असुबोधमतस्तैस्तत् कवित्वमिव बालकैः ॥ १०॥ ततस्तदुपकृ त्यै तन्मया किञ्चिद्वितन्यते । करणोक्त्यादि काठिन्यमपा कृत्य यथामति ॥ ११ ॥ वर्तमान काल में प्राय: कर प्राणियों की बुद्धि अनुक्रम से मंद होती जाती है,