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जिन सूत्र भाग: 1
प्रक्रियाएं जारी रखीं कि तुम अपने भीतर विचार भी चलाते रहे, तर्क भी करते रहे, विवाद भी करते रहे, तालमेल भी बिठाते रहे, तो तुम मुझे न सुन पाओगे। तुम्हारा शोरगुल इतना ज्यादा होगा, तुम कैसे मुझे सुन पाओगे ? फिर तुम जो निष्कर्ष लोगे वह मिथ्यात्व होगा ।
'मिथ्या - दृष्टि जीव तीव्र कषाय से पूरी तरह आविष्ट होकर जीव और शरीर को एक मानता है। वह बहिरात्मा है ।'
महावीर कहते हैं, आत्मा की तीन अवस्थाएं हैं: बहिरात्मा - जब तुम वासना से बाहर बहे जाते हो; | अंतरात्मा - जब तुम ध्यान से भीतर चले आते हो; और परमात्मा - जब बाहर - भीतर दोनों खो गये।
हो तो तुम वही । हो तो तुम परमात्मा ही । लेकिन जब परमात्मा बाहर की तरफ बह रहा है तो बहिरात्मा । जब पदार्थ में रुचि है, वस्तु में रुचि है, दूसरे में रुचि है, विषय-वस्तु में रुचि है; जब तुम अपने को इतना भूल गये हो कि बस पदार्थ ही सब कुछ हो गया, धन के दीवाने हो, पद के दीवाने हो – तब तुम बहिरात्मा । बहिरात्मा यानी आत्मा बाहर की तरफ बहती हुई फिर विचार शुरू हुआ। बहुत जले, इतने जले कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीने लगा ! विचार का जन्म हुआ, विवेक उठा, तब तुम भीतर लौटने लगे, अंतर्यात्रा शुरू हुई- - तब अंतरात्मा ।
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हो तो तुम वही — दिशा बदली, आयाम बदला, तुम्हारा गुणधर्म बदला; अभी तुम घर के बाहर जाते थे, अब तुम घर की तरफ आने लगे; अभी संसार की तरफ मुंह था, अब पीठ हो गयी; अभी सन्मुख संसार था, अब तुम आत्म-सन्मुख हुए; | फिर पहुंच गये घर; फिर तुम अपने में लीन हो गये; फिर स्वभाव उपलब्ध हो गया - तब परमात्मा ।
अब न कुछ बाहर है, अब न कुछ भीतर है। द्वंद्व गया, दुई मिटी । द्वंद्वात्मकता खोयी, निर्द्वद्व हुए। निर्ग्रथ हुए। इसको महावीर कहते हैं मोक्ष - अवस्था ।
हरात्मा को अंतरात्मा बनाना है, अंतरात्मा को परमात्मा बनाना है। परमात्मा तुम हो ही, सिर्फ यात्रा के रुख बदलने हैं, दिशा बदलनी है। जो तुम हो, वही हो सकते हो। जो तुम हो ही, वही होओगे। लेकिन अगर विपरीत चले जाओ, मिथ्यात्व में खो जाओ, तो तुम रहोगे भी परमात्मा, लेकिन अपने को
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कीड़ा-मकोड़ा समझने लगोगे; आदमी, स्त्री, हिंदू, मुसलमान, ब्राह्मण, शूद्र समझने लगोगे । रहोगे परमात्मा और किसी छोटी-सी चीज से अपना संबंध बना लोगे; कहोगे — यही मैं हूं, यही मैं हूं, यही मैं हूं !
लौटो भीतर की तरफ ! ध्यानस्थ होओ ! धीरे-धीरे तुम्हारी दृष्टि क्षुद्र से छूटेगी। जैसे अपनी तरफ लौटोगे, अचानक पाओगे : न तो मैं शरीर हूं न मैं मन हूं, न मैं हिंदू न मैं मुसलमान, न ब्राह्मण न शूद्र, न जैन न ईसाई, न स्त्री न पुरुष, न गरीब न अमीर, न सुखी न दुखी । जैसे-जैसे भीतर आने लगोगे, द्वंद्व छूटने लगे-दूर खोने लगे, आकाश में कहीं ! रह गए स्वप्नवत । स्मृति रह गयी। फिर एक दिन अचानक घर में प्रवेश हो जाएगा। तुम अपने स्वरूप में थिर हो जाओगे ।
स्वरूप में थिर हो जाना स्वस्थ हो जाना है। स्वस्थ यानी स्वयं में स्थित ! परमात्मा हुए, परमात्मा प्रगट हुआ।
महावीर की विचार सरणी में परमात्मा प्रकृति के प्रारंभ में नहीं है। परमात्मा, जब प्रकृति का परिपूर्ण उन्मेष और विकास हो जाता है, तब है। और परमात्मा एक नहीं है; उतने ही परमात्मा हैं, जितने जीवन-बिंदु हैं। हर बिंदु सागर हो जाता है। उतने ही सागर हैं जितने बिंदु हैं।
इसलिए परमात्मा, महावीर ही दृष्टि में, कोई तानाशाही की धारणा नहीं है; बड़ी लोकतांत्रिक धारणा है। प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा है । प्रत्येक व्यक्ति की नियति परमात्मा है, स्वभाव परमात्मा है ।
महावीर ने तुम्हारे भीतर के परमात्मा को पुकारा है - किसी परमात्मा की पूजा के लिए नहीं; किसी परमात्मा की अर्चना के लिए नहीं - अपने परमात्मा को पाने के लिए। और जब तक कोई परमात्मा की अवस्था को उपलब्ध न हो जाए... ध्यान रखना, परमात्मा अवस्था है, व्यक्ति नहीं... तब तक जीवन दुख से भरा रहता है; तब तक अंधेरी रात नहीं टूटती ।
उठो! चलें ! उस सूरज की खोज करें जो तुम्हारे भीतर छिपा है! जागो ! थोड़ा हलन चलन करो ! थोड़ी गति करो! उसकी खोज करो जो तुम्हारे भीतर पड़ा ही है; जिसे तुम सदा ही अप भीतर छिपाये रहे हो, लेकिन नजर नहीं दी, उस तरफ आंख नहीं फेरी। जैसे ही तुम भीतर की तरफ नजर को फेरते हो, मिथ्यात्व सरकने लगता है, खोने लगता है।
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