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को बनाने के लिए धन चाहिए, इस बड़े मकान को बनाने के लिए 'दूसरों से धन छीनना पड़ेगा। इस बड़े मकान को बनाने के लिए अब प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी। इस बड़े मकान को बनाने के लिए ईमानदारी, बेईमानी, सब मार्गों से खोजबीन करनी पड़ेगी – जैसे भी। इस बड़े मकान की आकांक्षा के उठते ही तुम्हारे भीतर हिंसा का बीज पड़ गया। देर लगेगी वृक्ष बनने में; लेकिन अगर बचना हो वृक्ष से तो बीज से ही बच जाना। इसलिए महावीर कहते हैं, राग की उत्पत्ति - हिंसा । ऐसा मत सोचना कि किसी की गर्दन काटोगे तब हिंसा |
यही अपराध और पाप का भेद है। अपराध -- जब पाप वास्तविक होकर प्रगट हो जाता है। जब पाप कानून की पकड़ में आ जाता है तो अपराध । और जब तक पाप कानून की पकड़ में नहीं आता तभी तक पाप । तुम अपने मन में बैठे अगर दुनियाभर को भी मारने का विचार करते रहो, तो कोई अदालत तुम्हें दंड नहीं दे सकती। पुलिस नहीं आ सकती पकड़ने कि तुम बहुत हिंसा के विचार कर रहे हो । विचार की स्वतंत्रता है तुम्हें । विचार को व्यक्त मत करना ।
कानून इतनी ही फिक्र करता है कि तुम जो सोचते हो, करना मत; किया तो पकड़े गये। अगर तुम सिर्फ सोचते रहो, तुम्हारी मौज। लेकिन धर्म इससे गहरे जाता है। धर्म कहता है, तुम सोचना मत। क्योंकि जो तुमने सोचा, कितनी देर बचोगे करने से? विचार वस्तु बन जाता है। जो भाव है, वह कल घना होकर बरसेगा । आज जो बिलकुल छोटा-सा मालूम पड़ता था, वह कल बड़ा हो जायेगा; वह फैलता रहेगा। आज कहीं भी पता न चलता था, तुम बिलकुल शांत बैठे थे।
महावीर के जीवन में उल्लेख है कि उनका एक शिष्य था : प्रसेनचंद्र । वह सम्राट था पहले, फिर संन्यस्त हो गया, नग्न मुनि हो गया।
एक दिन प्रसेनचंद्र का एक दूसरा मित्र बिंबिसार महावीर के दर्शन को आया । वह भी सम्राट था। उसने आकर महावीर को पूछा कि राह में प्रसेनचंद्र को खड़े देखा एक गुफा में । धन्यभागी है प्रसेनचंद्र ! मेरा बचपन का साथी है। वह मुनित्व को उपलब्ध हो गया। वह दिगंबर मुनि हो गया। एक मैं हूं अभागा, अभी भी सड़-गल रहा हूं संसार में। एक प्रश्न मेरे मन में उठा है, वह आप से पूछना है। जब मैं प्रसेनचंद्र के पास से गुजर रहा था और
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वासना ढपोरशंख है
मेरे मन में यह भाव उठा कि धन्यभागी है प्रसेनचंद्र — मेरे साथ ही बड़ा हुआ, साथ हम पढ़े और लिखे और खेले और ये इतने बड़े आंतरिक साम्राज्य का मालिक हो गया और मैं कुछ भी न कर पाया; मैं बाहर की व्यर्थ की चीजें जुटाने में लगा रहा; मेरी जिंदगी यूं ही गई तो तब मेरे मन में सवाल उठा था कि अगर प्रसेनचंद्र की इसी समय मृत्यु हो जाये तो यह किस स्वर्ग में या मोक्ष में जन्मेगा, वह मैं आप से पूछता हूं।
महावीर ने कहा, उस समय अगर प्रसेनचंद्र की मृत्यु हो जाती तो वह सातवें नर्क में पड़ता ।
बिंबिसार ने कहा, आप क्या कहते हैं? सातवें नर्क में ? तो हमारी क्या गति होगी ? वह सब छोड़कर खड़ा है!
महावीर ने कहा कि तुम आए, उसके पहले तुम्हारा फौज - फांटा आया; तुम्हारे वजीर निकले, सेनापति निकले, सिपाही निकले, उन सब ने भी प्रसेनचंद्र को देखा । तुम्हारे दो वजीर उसके पास खड़े होकर बात करने लगे कि ये देखो, बुद्ध की तरह यहां खड़ा है ! यह प्रसेनचंद्र है! यह बड़ा सम्राट था। अगर आज लगा रहता अपने काम में तो सारी जमीन का मालिक हो जाता। यहां बुद्ध की तरह खड़ा है नग्न ! और ये अपने वजीरों के ऊपर सब छोड़ आया है। इसके बेटे छोटे हैं और वजीर सब लूटे ले रहे हैं। जब तक इसके बेटे बड़े होंगे तब तक खजाने में कुछ बचेगा ही नहीं ।
उन दोनों वजीरों ने ऐसी बात की, प्रसेनचंद्र ने सुनी। वह आंख बंद किये खड़ा था। लेकिन उसने सुनी। सुनते ही क्रोध आ गया। उसने कहा, 'अच्छा! तो मेरे वजीर समझते क्या हैं, क्या मैं मर गया हूं ! मैं अभी जिंदा हूं!' क्रोध में, जैसी उसकी पुरानी आदत थी, हाथ उसका तलवार पर चला गया। तलवार अब नहीं थी, अब तो नंगा खड़ा था। लेकिन पुरानी आदत...! तलवार पर हाथ चला गया। जब तलवार पर उसका हाथ गया तो उसकी पुरानी एक और आदत भी थी कि जब भी वह बहुत क्रोध में आ जाता और तलवार पर उसका हाथ जाता तो दूसरे हाथ से वह अपना मुकुट सम्हालता कि कहीं वह गिर न जाये क्रोध में । अब मुकुट भी न था । दूसरा हाथ उसने मुकुट सम्हालने के लिए रखा; वहां कुछ भी न था । अपने ही माथे को छूकर उसे याद आयी कि अरे, यह मैं क्या कर रहा हूं! तत्क्षण उसने अपना तनाव छोड़ दिया, हिंसा का भाव छोड़ दिया।
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