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जिन सूत्र भाग: 1
दुनिया में दो तरह के धार्मिक व्यक्ति हैं। एक- जो भय के कारण धार्मिक हैं। चोरी नहीं कर सकते, भय के कारण; इसलिए अचोर हैं। बेईमानी नहीं कर सकते, पकड़े जाने के भय के कारण; इसलिए ईमानदार हैं। यह ईमानदारी कोई बहुत गहरी नहीं हो सकती। इस ईमानदारी में बेईमानी छिपी है। यह ईमानदारी ऊपर-ऊपर है; भीतर बेईमानी वास बनाए है। झूठ नहीं बोलते, क्योंकि पकड़े न जायें । अधर्म नहीं करते, क्योंकि पाप का भय है, नर्क का भय है। नर्क की लपटें दिखाई पड़ती हैं। और हाथ-पैर उनके शिथिल हो जाते हैं।
दुनिया में अधिक लोग धार्मिक हैं- भय के कारण; दंड के कारण। लेकिन जो भय के कारण धार्मिक हैं, वे तो धार्मिक हो ही नहीं सकते। उससे तो अधार्मिक बेहतर; कम से कम भयभीत तो नहीं है।
महावीर ने अभय को धर्म की मूल भित्ति कहा है। और है भी अभय धर्म कि मूल भित्ति । क्योंकि संसार को तो गंवाना है और कुछ ऐसी खोज करनी है जिसका हमें अभी पता भी नहीं । यह साहस के बिना कैसे होगा? जो सामने दिखाई पड़ता है उसे तो छोड़ना है और जो कभी दिखाई नहीं पड़ता, सदा अदृश्य है, अदृश्यों की गहरी पर्तों में छिपा है, रहस्यों की पर्तों में छिपा है— उसे खोजना है।
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क्षेत्र से वस्तुएं बनती हैं, यह साफ है। मनुष्य की चेतना कहां है? क्षेत्र में तो कहीं नहीं बता सकते। उंगली से इशारा हो सके, नहीं बता सकते। जहां भी हाथ रखोगे वहीं गलती हो जायेगी। आदमी की आत्मा कहीं समय में है। शरीर क्षेत्र में है, आत्मा समय में है। वस्तुएं क्षेत्र में हैं, घटनाएं समय में हैं। अगर तुम्हारा किसी से प्रेम हो जाये और कोई पूछे कहां है प्रेम, तो तुम क्या कहोगे ? तुम कहोगे, प्रेम घटना है, वस्तु नहीं। जब तुम कहते हो, प्रेम घटना है, तो तुम यह कह रहे हो कि समय में है, स्थान में नहीं । इसलिए हम यह न बता सकेंगे, कहां है। हम इतना ही कह सकते हैं, कब घटा। 'कहां' से कोई संबंध भी नहीं है - कब, किस घड़ी में, किस मुहूर्त में !
समझदार कहता है, हाथ की आधी भी भली । दूर की पूरी रोटी से हाथ की आधी रोटी भली ! तो समझदार तो कहता है, जो है उसे भोग लो। चाहे उसमें कुछ भी न हो; लेकिन इसे दांव पर मत लगाओ, क्योंकि कौन जानता है, जिसके लिए तुम दांव पर . लगा रहे हो वह है भी या नहीं ! जिस सत्य की, जिस आत्मा की, जिस परमात्मा की खोज पर निकलते हो— किसने देखा? इसलिए चार्वाक कहते हैं, 'ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत ।' पी लो घी ऋण लेकर भी - सामने तो है ! किस स्वर्ग के लिए छोड़ते हो ? ऋण न भी चुके तो फिक्र मत करो। लेकिन जो सामने है, उसे भोग लो।
समय को गंवा सकते हैं हम क्षुद्र को इकट्ठा करने में । क्षुद्र सामने है और जो विराट है वह छिपा है। इस क्षुद्र को इकट्ठा कर-करके भी तो कुछ पाया नहीं जाता। इसलिए महावीर कहते हैं, इसे दांव पर लगा दो। यह कचरा ही है; इसको दांव पर लगाने में कुछ खो नहीं रहे हो। और जो समय बच जायेगा, जो शुद्ध समय बच जायेगा, जिसको तुमने संसार में नहीं गंवाया, वही शुद्ध समय ध्यान बनता है।
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धर्म का पहला कदम तब उठता है, जब तुम देखते हो जो सामने है वह भोगने योग्य ही नहीं । भोगा तो, न भोगा तो - सब बराबर है। इसे भोग भी लिया तो क्या भोगा? इसे पाकर भी क्या मिलेगा? हां, इसे पाने में, इसे भोगने में जो समय गया वह जीवन की संपदा गई।
महावीर ने तो आत्मा को नाम 'समय' दिया है। बड़ी महत्वपूर्ण बात है। महावीर आत्मा को कहते हैं : 'समय' । समय को गंवाते हो तो आत्मा को गंवाते हो । समय को सम्हाल लिया तो आत्मा को सम्हाल लिया। जैसे वस्तुएं स्थान घेरती हैं, वैसे आत्मा समय घेरती है। जैसे वस्तुएं बाहर घटती हैं— क्षेत्र में, वैसे आत्मा भीतर घटती है:-समय में |
आइंस्टीन शायद महावीर से राजी होता; क्योंकि उसने भी पाया कि जीवन को बनानेवाले दो ही तत्व हैं : टाइम और स्पेस, समय और क्षेत्र ।
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संसार में न गंवाया गया समय ध्यान है। संसार की व्यस्तताओं में कलुषित न किया गया समय ध्यान है। इसलिए महावीर के लिए ध्यान के लिए जो शब्द है वह है : 'सामायिक' । वह 'समय' से बना है।
महावीर बड़े वैज्ञानिक हैं, उनकी शब्दावली में । जो समय संसार में नहीं लगा है, वही 'सामायिक'। महावीर के पास परमात्मा तो है नहीं कि कह दें कि परमात्मा में जो समय लगा है, वह ध्यान नहीं, जो संसार में नहीं लगा, जो
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