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जानता है कि यह जो सोया है, यह मैं नहीं हूं।
तादात्म्य बनाता है, तो तुम धीरे-धीरे पाओगेः वह सुंदर होने महावीर तो और भी गजब की बात कह रहे हैं। वह कह रहे हैं, लगा। उसके जीवन में तुम्हें एक नये गुण का प्रादुर्भाव दिखायी संयमी जब जागता है तब भी जागरण के साथ अपना तादात्म्य पड़ेगा। वह सुंदर होने लगेगा। जो आदमी अपने को योद्धा नहीं करता-सोने के साथ तो वह करता ही नहीं; जैसा कृष्ण समझता है, लड़ाका समझता है, उसके चारों तरफ धीरे-धीरे तुम कहते हैं कि सब सोये रहते हैं, उनका तादात्म्य हो जाता है। वह पाओगे योद्धा के लक्षण प्रगट होने लगे। कहते हैं, हम सोये हैं। संयमी कहता है, हम तो जागते रहे। जिससे हम तादात्म्य करते हैं, वही हम हो जाते हैं। क्योंकि महावीर कहते हैं कि इससे भी ऊपर उठना है। जागने में भी धीरे-धीरे जिसे हमने अपने साथ जोड़ा वह हमें प्रभावित करता तादात्म्य न हो जाये, सोने में तो तोड़ना ही है तादात्म्य। मूर्छा तो है, रूपांतरित करता है। तोड़नी ही है, अमूर्छा पकड़ नहीं लेनी है। राग तो तोड़ना ही है, सम्मोहनविद जानते हैं कि अगर किसी पुरुष को सम्मोहित विराग पकड़ नहीं लेना है।
करके कहा जाये कि तू पुरुष नहीं स्त्री है, तो गहरे सम्मोहन में इसलिए महावीर ने एक नये शब्द का उपयोग कियाः उसका तादात्म्य हो जाता है कि वह स्त्री है। फिर उससे कहा वीतराग। महावीर ने अपने परम संन्यासियों को विरागी न कहा, जाये, उठकर चलो, तो वह पुरुष जैसा नहीं चलता, स्त्री जैसा क्योंकि 'विरागी' में ऐसा लगता है : राग के विपरीत। सोये थे, चलने लगता है जो कि बड़ी कठिन बात है। क्योंकि पुरुष के जाग गये। संसार में थे, संन्यासी हो गये। राग था, विराग साध पास अलग तरह की हड्डियां हैं। और खासकर स्त्री की चाल लिया। महावीर कहते हैं, वीतराग।
पुरुष से भिन्न है, क्योंकि स्त्री के शरीर में गर्भ का स्थान है। उसी 'वीतराग' शब्द बड़ा अदभुत है! वीतराग का अर्थ होता है। गर्भ के स्थान के कारण उसकी चाल में एक गोलाई है, जो पुरुष न राग रहा, न विराग रहा। वीत : पार हो गये, दोनों के पार हो की चाल में नहीं हो सकती। लेकिन अगर सम्मोहित किया जाये गये। वह पूरी दुनिया ही गई। वह पूरा सिक्का ही छोड़ दिया। किसी व्यक्ति को और कहा जाये कि तुम स्त्री हो तो वह चलेगा वह द्वंद्व का जगत अब साथ न रहा। सोना और जागना भी द्वंद्व स्त्री की तरह। उससे कहा जाये बोलो तो वह बोलेगा स्त्री की है। राग और विराग भी द्वंद्व है! संसार और संन्यास भी द्वंद्व है। तरह। आवाज भी बदल जायेगी। यह सम्मोहन की प्रक्रिया निर्बुद्व हुए। सबके पार हुए।
इतनी गहरी हो सकती है। कि अगर सम्मोहित व्यक्ति को कहा 'जो अप्रमत्त और प्रमत्त नहीं होता, वही शुद्ध है।' जाये कि यह हाथ पर हम तुम्हारे अंगार रख रहे हैं और तुम सिर्फ यह शुद्धि की बड़ी अनूठी परिभाषा हुई। जो जागता नहीं, | एक साधारण कंकड़ रख रहे हो, तो उसका हाथ जल जायेगा, सोता नहीं; जो मूछित नहीं होता, अमूर्छित नहीं होता; जो न | फफोला आ जायेगा। साधारण कंकड़ गर्म भी नहीं है, अंगार की संसार में खोता है, न संन्यास में खोता है जिसका कहीं तो बात ही नहीं है, ठंडा पत्थर हाथ पर रखते हो और कहते हो तादात्म्य नहीं होता, वही शुद्ध है। जिसको गुरजिएफ कहता है: यह अंगार है, वह छिटककर फेंककर खड़ा हो जायेगा, आईडेंटिफिकेशन, तादात्म्य। जो किसी चीज से अपने स्वभाव चिल्लायेगा कि मार डाला, जला दिया। और उसके हाथ पर न को नहीं जोड़ता। जो दूर-दूर, पार-पार बना रहता है! जो सदा केवल जलने का स्थान बनेगा, फफोला भी उठेगा। जानता रहता है : मैं भिन्न हूं, मैं भिन्न हूं। किसी भी चीज के साथ अब क्या हुआ? अंगार तो रखा नहीं था, लेकिन अंगार रखा जो ऐसा भाव नहीं करता कि यह मैं हूं। क्योंकि जहां ही यह भाव है, यह भाव से तादात्म्य हो गया। इसीलिए तो लोग अंगारों पर आया कि यह मैं हूं, वहीं अशुद्धि शुरू हो गई। क्योंकि जिससे भी चल लेते हैं-वह भी भाव-तादात्म्य है। मुसलमान फकीर हम जुड़ते हैं, वह हमें प्रभावित करने लगता है।
या हिंदू योगी अंगारों पर चल लेते हैं। वह तादात्म्य की बात है। तुमने कभी खयाल किया? लोग जिन चीजों से अपना इस बात का पक्का तादात्म्य होना चाहिए कि हम चल लेंगे, तादात्म्य बनाते हैं, धीरे-धीरे वैसा ही रंग-ढंग उनके जीवन में छा भगवान बचायेगा, कि कोई वली बचायेगा। बस इसका पक्का जाता है। अगर कोई कवि सौंदर्य की अनुभूतियों के साथ अपना भरोसा होना चाहिए, फिर तुम न जलोगे। क्योंकि तुम्हारा भरोसा
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