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प्रश्न-सार
आपको सुनने के बाद मुझे व्यवहारिक जीवन में शिथिलता आती है। लेकिन जब आप प्रेम और भक्ति पर बोलते हैं तो मन खिल जाता है।
कृपाकर मुझे मेरा मार्ग दें।
मेरे भीतर स्तब्धता, सन्नाटा-सा लग रहा है और साथ ही अच्छे-बुरे विचारों का आक्रमण भी। मैं अपने को बहुत असहाय पा रही हूं। भय लगता है!
आप महावीर की अहिंसा पर, बुद्ध के शून्य पर, या कुछ भी बोलते हैं
तो उसमें अनिवार्यतः प्रेम जोड़ देते हैं। क्या हम संन्यासियों में प्रेम का अत्यंत अभाव देखकर ही
प्रेम का पुनः पुनः स्मरण कराते हैं?
मुझे समर्पण में बहुत आनंद आता है, ज्ञान से थोड़ा अहंकार जगता है।
मैं कौन-सा ध्यान करूं-बताने की कृपा करें।
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