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जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति
हैं। लेकिन शब्द वही के वही हैं। उमर खैयाम की रुबाइयां इसी -हे धर्मगुरु! मुझे प्रार्थना के समय शराब पीने से मत रोक! तरह भ्रष्ट हुईं। जिस व्यक्ति ने पहली दफा अनुवाद किया कि सिजदे के लिए दिल में जरा-सा सिद्क लाना है। फिटज़राल्ड ने, अंग्रेजी में, उसने समझा कि ये मधु-गीत हैं, -थोड़ी-सी सचाई तो होनी चाहिए, नहीं तो प्रार्थना झूठी हो शराब की प्रशंसा में गाये गए गीत हैं। लेकिन उमर खैयाम शराब जायेगी। कहता है परमात्मा की याद को, उसकी स्मृति को, जिक्र को। अब या तो हम समझ लें कि यह बाहर की शराब है या हम और जिन साकियों की वह बात करता है, वह वही परमात्मा है। समझ लें कि किसी भीतर की शराब है। लेकिन महावीर कहते और जिस मधु के ढालने की बात कर रहा है, वह जीवन-रस है। हैं, शराब शराब है। तुम इसे कितना ही ऊंचा उठाओ, और लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? फिटज़राल्ड ने अनुवाद कितने ही शुद्ध अंगूरों से निचोड़ो, शराब शराब है। और नशा दिया। उसने समझा कि यह सब प्रेयसी, साकी, मधुशाला-ये नशा है। यह किसी की सुंदर सूरत को देखकर छा जाये या यह सब संसार की ही चीजें हैं।
| परमात्मा के फूल और पक्षियों के गीत सुनकर आ जाये, इससे दोनों के लिए उपयोग हो सकते हैं।
क्या फर्क पड़ता है? लेकिन तुम्हारा राग अभी भी बाहर है। चलो छिया-छी हो अंतर में
सुंदर स्त्री बाहर है, सुंदर पुरुष बाहर है, सुंदर फूल भी बाहर तुम चंदा
हैं और सुंदर परमात्मा का आकाश और चांद तारे भी बाहर मैं रात सुहागन चमक-चमक उढे आंगन में
'राग का अंश होने से भक्ति भी पर-समयरत है।' चलो छिया-छी हो अंतर में
वह दूसरे में लगी। दूसरे में उत्सुक है। अपनी तरफ नहीं लौट भक्त जो भाषा बोलते हैं—मीरा की भाषा, चैतन्य की भाषा रही है। दूसरे की तरफ बह रही है। और दूसरा बंधन है। या कबीर की-उसमें कठिनाई मालूम होगी।
| इसलिए महावीर भक्ति को भी जगह न देंगे। और अगर हम कबीर कहते हैं, मैं राम की दुलहन हो गया! आखिर भाषा तो भक्तों की बातें सुनें तो महावीर की बात में सचाई भी मालूम इसी जगत के रागात्मक शब्दों का उपयोग कर रही है। मीरा पड़ती है, निश्चित सचाई मालूम पड़ती है। क्योंकि भक्त कहती है, 'सेज को तैयार किया है. तम कब आओगे?' 'सेज | भगवान से ऐसी बातें करता है। जैसे प्रेमी एक-दूसरे से बातें को तैयार किया है'-यह तो सुहागरात की ही बात हो गई। करते हैं। मान-मनौवल भी चलती है। रूठना-मनाना भी
तो महावीर के कहने में सार्थकता भी है कि कितना ही शुद्ध राग चलता है। शिकवा-शिकायत भी चलती हैं। हो जाये, कितना ही शुद्ध सम्प्रयोग, कितनी ही शुद्ध भक्ति हो, मुझको इस तर्जे-तगाफुल पे खफा होना था लेकिन उसमें स्वर तो संसार का ही होगा।
उल्टे तुम मुझ पे खफा हो यह तमाशा क्या है? सहर के वक्त मय पीने से मुझको रोक मत नासेह
भक्त भगवान से कहता है: कि सिजदे के लिए दिल में जरा-सा सिदक लाना है। मुझको इस तर्जे-तगाफुल पे खफा होना था-तुम्हारे
सूफी कहते हैं कि हमें प्रार्थना के वक्त पीने से मत रोको, उपेक्षा-भाव पर मुझे नाराज होना चाहिए: चिल्लाता रहता हूँ, क्योंकि प्रार्थना के लिए थोड़ी सचाई लानी है। और बिना पीए तुम्हारा कोई उत्तर भी नहीं पाता... कहीं सचाई हुई? बिना पीए तो आदमी झूठ और धोखे दिये । मुझको इस तर्जे-तगाफुल पे खफा होना था चला जाता है। इसलिए तो शराबी की बातें सुनो, वह ज्यादा उल्टे तुम मुझ पे खफा हो यह तमाशा क्या है? ईमानदारी की होती है। वह सच बोलने लगता है। फिक्र ही न भक्त तो बात करता है, प्रार्थना करता है, बोलता है, रोता है रही झूठ बोलने की। झूठ याद कौन रखे! फायदा, हानि, कभी, कभी भगवान पर नाराज भी हो जाता है। खफा भी हो | लाभ-कुछ भी न रहा।
जाता है, दो-चार दिन प्रार्थना भी नहीं करता, बंद कर देता है सहर के वक्त मय पीने से मुझको रोक मत नासेह! द्वार-दरवाजे कि पड़े रहो। फिर मना भी लेता है।
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