Book Title: Jina Sutra Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 644
________________ 634 जिन सूत्र भाग : 1 देखता ही नहीं और अलोभ को साधने लगता है। यही फर्क है। वह क्रोध को देखता ही नहीं, अक्रोध की आकांक्षा में संलग्न हो जाता है। कामवासना में आंख नहीं डालता, और ब्रह्मचर्य के नियम ले लेता है। यही महावीर कह रहे हैं। ऐसा चरित्र पहुंचाएगा न । उधार से कभी कोई गया नहीं । धर्म चाहिए नगद ! एक मुअम्मा है समझने का न समझाने का जिंदगी काहे को है एक ख्वाब है दीवाने का। जिसे अभी हम जिंदगी कह रहे हैं, सोयी-सोयी, एक स्वप्न से ज्यादा नहीं है। जिस दिन तुम जागोगे उस दिन तुम पाओगे, अब तक तुमने जिसे जीवन जाना था वह केवल एक स्वप्न था; और स्वप्न भी कोई बहुत मधुर नहीं । दुख स्वप्न, नाइट- मेयर । कोई धन के सपने देख रहा है, कोई पद के सपने देख रहा है। चरित्र का अनुयायी कहता है, छोड़ो धन की दौड़, छोड़ो पद की दौड़ ! और दृष्टि का अनुयायी कहता है, देखो पद की दौड़ को, देखो धन की दौड़ को ! इस फर्क को खयाल में ले लेना। दृष्टिवाला कहता है, भागो मत! भागकर कहां जाओगे ? अगर भीतर नींद है तो साथ चली जायेगी। अगर भीतर स्वप्न है तो साथ चला जायेगा। भागो मत! जागो ! देखो जहां हो, जो है । जीवन का जो भी तथ्य है, मधुर कि कड़वा, सुस्वादु कि विषाक्त — चखो, पहचान बनाओ! उसी पहचान से धीरे-धीरे ज्ञान निसृत होता है। उसी से धीरे-धीरे बूंद-बूंद ज्ञान की टपकती | है । तुम्हारा मधु - पात्र एक दिन भर जाएगा। और तब तुम्हारे जीवन में आचरण होगा। लेकिन वह आचरण जरूरी नहीं कि जैनों की मान्यता के अनुसार हो कि हिंदुओं की मान्यता के 'अनुसार हो कि बौद्धों की मान्यता के अनुसार हो । वह आचरण तुम्हारे स्वभाव के अनुसार होगा। यह भी खयाल में ले लेना। प्रत्येक जाग्रत पुरुष का आचरण अद्वितीय होता है। तो तुम राम को कृष्ण से मत तौलना। अगर कृष्ण से राम को तौलोगे तो दो में एक ही ठीक रह जायेगा, दोनों ठीक नहीं हो सकते। और तुम बुद्ध को महावीर से तौलना। और न तुम मुहम्मद को जीसस तौलना। और न तुम जरथुस्त्र को लाओत्से से तौलना । तुम तौलना ही मत । क्योंकि प्रत्येक जाग्रत व्यक्ति का आचरण उसके अपने जागरण का परिणाम होता है। वह निजी है, अद्वितीय है, अनूठा है । | न Jain Education International वैसा कभी हुआ है, वैसा न कभी होगा। सोए हुए लोगों का आचरण पंक्तिबद्ध होता है, दूसरों जैसा होता है; अनुकरण पर निर्भर होता है। दो महावीर नहीं हुए, न दो बुद्ध हुए, न दो कृष्ण हुए, न हो सकते हैं। इस अद्वितीयता को खूब गहरे में बिठा लेना । तब तुम्हें भय न रहेगा । तब तुम्हारी दृष्टि जागेगी तो तुम्हारा आचरण तुम जैसा होगा। और परमात्मा अगर कहीं होगा और तुमसे पूछेगा तो वह यह न पूछेगा कि तुम महावीर जैसे क्यों न हुए; वह तुमसे पूछेगा, तुम तुम जैसे क्यों न हुए? तुमने अपने स्वभाव को खिलाया क्यों न? तुम जो होने को पैदा हुए थे, विकसित क्यों न हुए? तुमने अपने बीज को फूलों तक क्यों न पहुंचाया ? इसकी फिक्र छोड़ देना कि तुम किसी से तालमेल खा रहे हो कि नहीं; क्योंकि सत्य अनूठा है। किसी गहरे अर्थ में तालमेल खाता भी है और किसी गहरे अर्थ में बिलकुल भिन्न होता है। अगर बहुत गहराई में कृष्ण के उतरोगे, अंतस्तल में, तो ठीक महावीर को पा लोगे। लेकिन बाहर - बाहर से देखोगे तो महावीर कहां, कृष्ण कहां, बड़े अलग-अलग हैं! तुम भी अलग ही होनेवाले हो । और संप्रदाय व्यक्ति को धर्म व्यक्ति को व्यक्ति बनाता भीड़ बना देते हैं। भीड़ से बचना ! धर्म निजी और वैयक्तिक खोज है। दूसरा सूत्र : 'एक ओर सम्यक्त्व का लाभ और दूसरी ओर त्रैलोक्य का लाभ हो तो त्रैलोक्य के लाभ से सम्यक दर्शन का लाभ श्रेष्ठ है।' एक तरफ मिलती हो दृष्टि और दूसरी तरफ मिलते हों तीनों लोक के खजाने और सारी संपदा और साम्राज्य, तो भी महावीर कहते हैं, तीनों लोक के साम्राज्य और संपदा से दृष्टि का लाभ श्रेष्ठ है। क्योंकि अंधे के हाथ में साम्राज्य हो तो भी वह भिखारी रहेगा । और आंखवाले के पास भिक्षा का पात्र भी हो तो साम्राज्य बन जाता है। आंख का सारा खेल है। इसीलिए तो यह अनूठी घटना घटी कि महावीर भिखारी की तरह राह पर खड़े हो गये। लेकिन इनसे बड़े सम्राट कभी किसी ने देखे ? कि राजमहल छोड़ दिया, राह के भिखारी हो गये, कुछ भी उनके पास न रहा; लेकिन फिर भी जितना इस आदमी के पास था किसके पास कब रहा! जीवन को बड़ी से बड़ी संपदा मिलती है। दृष्टि से और कोई संपदा उसके मुकाबले बड़ी नहीं । बुद्ध For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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