Book Title: Jina Sutra Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 684
________________ Page जिन सूत्र भाग : 1 ement Bere Sood S S लिया हो, अनजाने सीख लिया हो। मांग लेना। वहीं हाथ जोड़ लेना। कहना, माफ करना, क्षमा और फिर तुम कौन हो निर्णायक? करना, भूल हो गई। वापस लौट आना। फिर स्थिर हो जाना। जीसस ने भी यही बात कही है। कहा है कि निर्णायक मत स्थिरीकरण बहुत उपयोगी सूत्र है। और जिनको जीवन को बनना, 'जज ई नाट!' दूसरे के न्यायाधीश मत बनना। दूसरा साधना है, उनके लिए निरंतर उसका उपयोग करना होगा, स्वयं जिम्मेवार है अपने कृत्यों के लिए; अपने कृत्यों का फल क्योंकि भूलें तो होंगी ही। फिर भूलों को लेकर मत बैठ जाना स्वयं पा लेगा। तुम बीच में निंदा, तुम बीच में विरोध और और उनमें बहुत रस मत लेने लगना, कि भूल हो गई, अपराध व्याख्या मत करना। और ध्यान रखना, जैसे दूसरे के गुणों को का भाव, और गिल्ट...। क्योंकि वह भी गलत है। वह भी देखना जरूरी, दुर्गणों को देखना जरूरी नहीं-अपने दर्गणों को नाहक अपने घाव को कुरेद-कुरेदकर खराब करना है। हो गई देखना जरूरी है, अपने गुणों को देखना जरूरी नहीं है। क्योंकि भूल, याद आ गई, वापस लौट जाए। जो व्यक्ति अपने गुणों को बहुत देखने लगता है, वह फूलने तुम ध्यान करने बैठते हो, थिरता टूट जाती है : किसी विचार लगात है गुब्बारे जैसा। उसका अहंकार मजबूत होने लगता है। के पीछे चल पड़े। कभी-कभी ऐसे विचार, जिनसे तुम्हें जाने का तो अपने गुब्बारे को, अहंकार के गुब्बारे को दोषों को कोई संबंध न था—तुम ध्यान करने बैठे, एक कुत्ता भौंकने देख-देखकर फोड़ते रहना, ताकि अहंकार बड़ा न हो। और लगा; अब कुत्ते के भौंकने से तुम्हारा कोई लेना-देना न था, अपने गुणों की कोई चर्चा मत करना। क्योंकि अगर वे हैं तो लेकिन कुत्ते के भौंकने से तुमको अपने मित्र के कुत्ते की याद आ उनकी सुगंध अपने से पहुंच जाएगी। अगर वे नहीं हैं तो चर्चा गई। मित्र के कुत्ते की याद आई तो मित्र की याद आ गई। मित्र करने से कुछ सार नहीं। के साथ कभी दो साल पहले कोई सुंदर दिन बिताया था पहाड़ों __'उपगृहन' के बाद छठवां है : स्थिरीकरण। महावीर कहते हैं | पर, वह याद आ गया-चल पड़े! कि जीवन की, सत्य की इस यात्रा में बहुत बार चूकें होंगी; बहुत जब याद आ जाये कि अरे! तब तत्क्षण स्थिर हो जाना। फिर बार पांव यहां-वहां पड़ जायेंगे; बहुत बार तुम भटक जाओगे। वापस लौट आना। फिर इसको लेकर परेशान मत होना, कि यह तो उसके कारण व्यर्थ परेशान मत होना और अपराध भाव भी | मैंने क्या कर लिया, क्योंकि वह परेशानी भी फिर ध्यान में न मत लाना। यह स्वाभाविक है। जब भी तुम्हें स्मरण आ जाए, | लगने देगी। तो जैसे ही याद आ जाए, स्मरण हो, चुपचाप अपने फिर अपने को मार्ग पर आरूढ़ कर लेना। उसका नाम है: | को स्थिर कर लेना। नहीं तो लोग क्या करते हैं-पहले गलती स्थिरीकरण। फिर अपने को स्थिर कर लेना। करते हैं, फिर गलती के संबंध में पश्चात्ताप करते हैं, फिर रोते हैं, जैसे तुमने तय किया, क्रोध न करेंगे; समझ आई कि क्रोध न अपराध अनुभव करते हैं तो गलती से भी ज्यादा गलती हो करेंगे; देखा, बार-बार क्रोध करके कि सिवाय दुख के कुछ भी | गई। गलती तो एक जगह होकर पूरी हो गई फिर उसका न हआ देखा क्रोध करके कि अपने लिये भी नर्क बना, दूसरे के | सिलसिला चल पड़ा। अब उसका पश्चात्ताप करो। अब लिये भी नर्क बना–तय किया, अब क्रोध नहीं करेंगे। ऐसी | रोओ। अब कहो कि भूल हो गई, डिग गया अपने पथ से, पापी समझपूर्वक एक स्थिति बनी क्रोध न करने की। लेकिन फिर भी | हो गया। चूकें होंगी। किसी आवेश के क्षण में पुनः क्रोध हो जाएगा। लंबी | महावीर कहते हैं, इस सब में पड़ने की इतनी ऊर्जा खराब मत आदत है। जन्मों-जन्मों के संस्कार हैं; इतनी जल्दी नहीं छूट | करना। आया स्मरण, कि भूल के रास्ते पर चले गये थे, तत्क्षण जाते। फिर-फिर पकड़ लिये जाओगे। तो जब याद आ जाए, चुपचाप वापस लौट आना। ऐसा बार-बार स्थिरीकरण जैसे ही याद आ जाए, अगर क्रोध के मध्य में याद आ जाए, तो | होते-होते, होते-होते, जिसको कृष्ण ने स्थिति भी कहा है, पुनः अपने को अक्रोध में स्थिर कर लेना। अगर गाली आधी | स्थितिप्रज्ञ कहा है-वह स्थिति घटेगी। कभी ऐसी घड़ी आ निकल गई थी, तो बस आधी को पूरा भी मत करना। यह भी मत | जाती है कि फिर कोई भूल नहीं होती। तुम्हारी थिरता शाश्वत हो कहना कि अब पूरी तो कर दूं। बीच से ही रोक लेना। वहीं क्षमा | जाती है। तुम्हारी लौ अकंप हो जाती है। 674 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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