Book Title: Jina Sutra Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 689
________________ सम्यक दर्शन के आठ अंग भी, सभी जलयान डूबे हैं। बहुत-से खो भी गये हैं। अनंत खो गए हैं। पार जाने की प्रतिज्ञा कहते हैं, हजार बुलाए जाते तो सौ पहुंचते हैं। सौ जो पहुंचते आज बरबस ठानता मैं हैं, उनमें से दस चलते हैं। और दस चलते हैं, एक कहीं डूबता मैं, किंतु उतराता सिद्धावस्था को उपलब्ध हो पाता है। सदा व्यक्तित्व मेरा किंतु होता सत्य यदि यह हों युवक डूबे भले ही भी, सभी जलयान डूबे है कभी डूबा न यौवन पार जाने की प्रतिज्ञा तीर पर कैसे रुकू मैं आज बरबस ठानता मैं आज लहरों में निमंत्रण! लेकिन, अगर यह भी सत्य होता कि जो भी गया, सभी डूब महावीर दूर अनंत के सागर की लहरों का निमंत्रण हैं। और गए, तो भीनिमंत्रण ही नहीं, उस दूर के सागर तक पहुंचने का एक-एक पार जाने की प्रतिज्ञा, कदम भी स्पष्ट कर गए हैं। महावीर ने अध्यात्म के विज्ञान में आज बरबस ठानता मैं कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ा, खाली जगह नहीं है। मक्शा पूरा है। -क्योंकि यहां इस किनारे कुछ भी तो नहीं है। यहां बचे भी, एक-एक इंच भूमि को ठीक से माप गए हैं और जगह-जगह तो भी तो कुछ बचने जैसा नहीं है। और सागर में अगर डूबे भी मील के पत्थर खड़े कर गए हैं। तो डूबकर भी कुछ मिलता है। ये आठ सूत्र सम्यक दर्शन के सध जाएं तो सब सध गया। ये डूबता मैं किंतु उतराता | आठ सध जाएं तो समाधि सध गई, क्योंकि इन आठ के सधते ही सदा व्यक्तित्व मेरा। सारी समस्याएं तिरोहित हो जाती हैं। जो शेष रह जाता है, वही | तुम तो डूब जाओगे, लेकिन आत्मा उतराएगी। तुम तो डूबोगे समाधान है। | तभी आत्मा उतराएगी। तुम तो आत्मा में पत्थर की तरह हो। महावीर के निमंत्रण को अनुभव करो! उनकी पुकार को सुनो! तुम्हारी वजह से आत्मा तैर नहीं पाती, तिर नहीं पाती। ऐसे खाली नाममात्र को जैन होकर बैठे रहने से कुछ भी न होगा। हों युवक डूबे भले ही ऐसी नपुंसक स्थिति से कुछ लाभ नहीं। उठो! अपने का है कभी डूबा न यौवन जगाओ! बहुत बड़ी संभावना तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। खतरा तीर पर कैसे रुकू मैं है। इसलिए महावीर कहते हैं : अभय, साहस चाहिए! आज लहरों में निमंत्रण। खतरा यही है: सुनो इस निमंत्रण को! करो हिम्मत! चलो थोड़े कदम पोत अगणित इन तरंगों ने महावीर के साथ। थोड़े ही कदम चलकर तुम पाओगे कि जीवन डुबाए, मानता मैं की रसधार बहने लगेगी। थोड़े ही कदम चलकर तुम पाओगे, -बड़ा है, विराट है सागर! और न मालम कितने पोत इब | संपदा करीब आने लगगी। आने लगी शीतल हवाएं-शांति चुके हैं! | की, मुक्ति की! फिर तुम रुक न पाओगे। फिर तुम्हें कोई भी पोत अगणित इन तरंगों ने रोक न सकेगा। थोड़ा लेकिन स्वाद जरूरी है। दो कदम चलो, डुबाए, मानता मैं स्वाद मिल जाए; फिर तुम अपने स्वाद के बल ही चल पड़ोगे। पार भी पहुंचे बहुत से लाओत्सु ने कहा है, एक कदम तुम उठा लो, फिर फिक्र नहीं। बात यह भी जानता मैं। बस एक कदम तुम न उठाओ तो बड़ी फिक्र है। पहला कदम तुम लेकिन कुछ हैं जो पार भी पहुंच गए हैं। कोई महावीर, कोई | उठा लो तो बस, दूसरा तुम उठाओगे ही। क्योंकि पहले को बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट, कोई मुहम्मद पार भी पहुंच गये उठाने में ही ऐसा रस बरस जाता है, फिर कौन पागल होगा जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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