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STRIPURANDARPAN
सम्यक दर्शन के आठ अग
शरीर को हटाने का अर्थ समझना। जब भी तुम्हारे मन में कोई गया—वह राग था महावीर के प्रति। वह राग था महावीर के तरंग उठती है, तत्क्षण शरीर में भी समानांतर तरंग उठती है। चरणों का। उतने ही राग ने रोक लिया। एक प्रेम लग गया अगर तुम्हारे मन में कामवासना उठी, तो तत्क्षण शरीर महावीर से। महावीर के बिना उसे तकलीफ होने लगी। दिन को कामवासना के लिये तत्पर होने लगता है, तरंग उठती है। और भी कहीं जाता तो बस महावीर की ही याद आती रहती। महावीर जब भी तुम्हारे मन में कोई तरंग उठती है, और शरीर में तरंग ने उसे कई बार कहा कि तूने सब छोड़ दिया, अब मुझे क्यों पकड़ उठती है, तो तुम्हारे भीतर भाषा और वचन निर्मित होता है। रूप लिया है? क्योंकि असली सवाल छोड़ने का नहीं-असली बनता है विकार का। प्रतिमायें उठती हैं। स्वप्न निर्मित होता है। सवाल तो पकड़ ही छोड़ देने का है।
वचन से अर्थ है : विचार; मन की कल्पना का जाल। और | तुमने कुछ पकड़ा, किसी ने कुछ और पकड़ा, किसी ने कुछ मन, शरीर, वचन, तीनों में एक साथ लहर आती है। तीनों को और पकड़ा-लेकिन पकड़ तो जारी रहती है। किसी ने धन एक साथ खींच लेना! किसी एक को खींच लेने से काम न पकड़ा, किसी ने धर्म पकड़ा। किसी ने पत्नी पकड़ी, किसी ने चलेगा। तुम, हो सकता है शरीर को खींचकर दरवाजा बंद | गुरु पकड़ा–लेकिन पकड़ तो जारी रहती है। करके बैठ जाओ, इससे कुछ फर्क न पड़ेगा। बहुत-से जैन मुनि और महावीर बड़े कठोर हैं इस दृष्टि से। क्योंकि उनका पूरा शरीर को खींचकर बैठ गए हैं, लेकिन मन और वचन में तरंगें राग से ही विरोध है। वह पूरा रास्ता ही वीतराग का है। तो यह उठती रहती हैं। शरीर को खींच लेना बहुत आसान है। शरीर को गौतम सब छोड़ आया। पत्नी होगी, बच्चे होंगे, घर-द्वार होगा, खींच लेने में बहुत कठिनाई नहीं है। शरीर बहुत स्थूल है। उससे मित्र-परिजन होंगे, धन-संपत्ति होगी, पद-प्रतिष्ठा होगी-सब भी गहरा वचन है। विचार में भी तरंग न उठे।
| छोड़ आया। यह बड़ा पंडित था, ब्राह्मण था। इसने सब शास्त्र लेकिन बहुत-से लोग विचार को भी खींचकर बैठ जाते हैं। वेद, उपनिषद, सब छोड़ दिये। लेकिन उस सबको छोड़कर फिर भी मन में तरंग उठती है। मन यानी अचेतन। तो दिनभर महावीर के चरणों को पकड़कर बैठ गया। यह अब महावीर का याद नहीं आते, लेकिन रात सपने में याद आ जाते हैं। दिनभर दीवाना बन गया। तो महावीर उससे बार-बार कहते रहे कि तू तुम सम्हाले रहते हो। कोई विचार नहीं उठने देते। लेकिन स्वप्न | मुझे भी छोड़। यह बात ही सुनकर उसको कष्ट होता। यह बात में विचार आ जाते हैं। तो भी, दुष्प्रवृत्ति हो गई। तो भी, तुम ही कल्पना के बाहर थी : महावीर को छोड़ो! वह सब छोड़ने को च्युत हुए। इन सबसे धीरपुरुष अपने को खींचता रहता है। तैयार था महावीर के लिए। सब छोड़ा ही महावीर के लिए था। _ 'तू महासागर को तो पार कर गया है, अब तट के निकट | अब यह तो बात जरा ज्यादा हो गई कि महावीर को भी छोड़ो। पहंचकर क्यों खड़ा है? उसे पार करने में शीघ्रता कर हे गौतम, तो फिर सब छोड़ा ही किसलिए था! वह महावीर के लिए ही क्षणभर का भी प्रमाद मतकर!'
छोड़ा था। वह मुक्त न हो सका। यह तीसरा सूत्र है आज के लिए। यह महावीर ने अपने | महावीर ने जिस दिन देह छोड़ी, उसे सुबह ही दूसरे गांव में महानिर्वाण के क्षणभर पहले कहा था। यह अपने पट्ट शिष्य उपदेश के लिए भेजा। शायद जानकर ही भेजा हो। क्योंकि वह गौतम के लिये कहा था।
पास रहेगा तो बहुत दुखी होगा। यह मृत्यु उसके सामने, कहीं गौतम महावीर का प्रथम गणधर है—उनका सबसे ज्यादा उसे विक्षिप्त न कर दे। उसका लगाव बहुत था। फिर पीछे से निकट का शिष्य। लेकिन विडंबना भाग्य की, कि वह आया था खबर मिलेगी तो बात आई-गई हो जाएगी। फिर धीरे-धीरे सबसे पहले, लेकिन मुक्ति का स्वाद न ले सका। वह महावीर सम्हल जाएगा। आघात मृत्यु का सीधे, महावीर को अपने के पास वर्षों रहा, फिर भी उस परम दशा को न पहुंच सका, सामने ही, मरा हुआ देखना, देह से छूट जाना देखना-शायद जिसको हम कैवल्य कहें, समाधि कहें। मन मिट न सका। और उसके प्राणों को तोड़ दे, शायद वह सह न पाये! तो उसे दूसरे उसने कुछ छोड़ा हो करने में, ऐसा भी नहीं है। उसने सब किया । गांव भेज दिया। जब वह सांझ को लौट रहा था दूसरे गांव से तो जो महावीर ने कहा। लेकिन एक छोटा-सा राग पैदा हो राहगीरों ने रास्ते में उससे कहा कि गौतम, तुम्हें कुछ पता है,
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