Book Title: Jina Sutra Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 682
________________ जिन सत्र भाग 1 किसी को गुरु बना लेते हैं। जैसे बिना गुरु बनाए रहना ठीक नहीं आकर ढाई सौ डालर जमा करवा गया। तो मैं खुद भी चमत्कृत मालूम पड़ता—गुरु तो होना ही चाहिए! तो किसी को भी गुरु हुआ। यह मैंने सोचा न था। दूसरे दिन देखा कि एक दूसरा बना लेते हैं। किसी से भी कान फुकवा लिए! यह भी नहीं आदमी आया और वह भी कोई सौ डालर जमा करवा गया। सोचते कि जिससे कान फंकवा रहे हैं उसके पास कान फंकने फिर तो मेरी इतनी हिम्मत बढ़ गई कि मेरे पास जो पच्चीस डालर योग्य भी कुछ है। थे वे भी मैंने जमा कर दिये। बैंक चल पड़ा। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम पहले गुरु बना चुके तुम अगर थोड़ी देर किसी पत्थर पर, सिंदर पोतकर बैठ हैं, तो आपका ध्यान करने से कोई अड़चन तो न होगी? मैंने | जाओ, तो शाम होते-होते तुम खुद ही पूजा करोगे। क्योंकि तुम कहा, 'अगर तुम्हें पहले गुरु मिल चुका है तो यहां आने की कोई | देखोगे कि इतने लोग पूजा कर रहे हैं, सभी गलत थोड़े ही हो जरूरत नहीं। वे कहते हैं, 'मिला कहां!' वह तो गांव में जो सकते हैं। माना कि तुम्हीं ने रंग पोता था, लेकिन जरूर कुछ बात ब्राह्मण था, उसी को बना लिया था। होगी, कुछ राज होगा। शायद तुमने ठीक पत्थर पर रंग पोत अभी उसको खुद ही कुछ नहीं मिला। तो तुम सोचते तो थोड़ा | दिया है। अनजाने सही। तुमने परमात्मा की किसी प्रतिमा पर कि जिसे तुम गुरु बनाने जा रहे हो, वह कम से कम तुमसे एक रंग डाल दिया, इतने लोग पूज रहे हैं! कदम तो आगे हो! लेकिन गुरु होना चाहिए!...बिना गुरु के यह मूढ़ता छूटनी चाहिए। कैसे रहें! तो किसी को भी गुरु बना लेते हो! जो मिल गया वही ...तो महावीर कहते हैं अमूढ़दृष्टि पैदा होती है। गुरु हो गया। पिता के गुरु थे तो वही तुम्हारे गुरु हो गये, पति के अमूढदृष्टि चौथा चरण है सम्यक दर्शन का। गुरु थे तो वही पत्नी के गुरु हो गये। बिना इस बात का विचार पांचवां चरण है: उपगृहन। किए कि यह बड़ी महिमापूर्ण बात है, यह जीवन की बड़ी चरम उपगूहन का अर्थ है : अपने गुणों और दूसरों के दोषों को प्रगट खोज है-गुरु को खोज लेना! न करना। यह जुगुप्सा के ठीक विपरीत है। अपने गण प्रगट न गुरु को खोज लेने का अर्थ, एक ऐसे हृदय को खोज लेना है करना और दूसरे के दोष प्रगट न करना। हम तो करते हैं उलटा जिसके साथ तुम धड़क सको और उस लंबी अनंत की यात्रा पर हीः अपने गुण प्रगट करते हैं, जो नहीं हैं वे भी प्रगट कर देते हैं; जा सको। और दूसरे के दोष प्रगट करते हैं, जो नहीं है वे भी प्रगट कर देते तो महावीर कहते हैं, ये तीन मूढ़ताएं हैं और इन मूढ़ताओं के | हैं, जो हैं उनकी तो बात ही छोड़ दो।। कारण व्यक्ति सत्य की तरफ नहीं जा पाता। या तो भीड़ को महावीर कहते हैं, जिसको सत्य की खोज पर जाना है, उसे ये मानता है, या देवी-देवताओं को पूजता रहता है। कितने सारे संयम, ये अनुशासन, ये मर्यादाएं, अपने जीवन में उभारनी देवी-देवता हैं! हर जगह मंदिर खड़े हैं। हर कहीं भी झाड़ के पड़ेंगी। अपने गुणों को मत कहना, दूसरों के दोषों को मत नीचे रख दो एक पत्थर और पोत दो लाल रंग उस पर, थोड़ी देर कहना। तुम्हारा क्या प्रयोजन है? दूसरे का दोष है-दूसरा में तुम पाओगे, कोई आकर पूजा कर रहा है! तुम करके देखो! जाने। और तुम जान भी कैसे सकते हो, क्योंकि तुम दूसरे के तुम सिर्फ बैठे रहो दूर छिपे हुए, देखते रहो। तुमने ही पत्थर रख स्थान पर खड़े नहीं हो सकते। दूसरे की परिस्थिति का तुम्हें पता दिया है और सिंदूर पोत दिया है; थोड़ी देर में कोई न कोई आकर नहीं है। दूसरे ने किस परिस्थिति में ऐसा दोष किया, इसका तुम्हें पूजा करेगा। बड़ी मूढ़ता है। कुछ पता नहीं है। अगर वैसी ही ठीक परिस्थिति तम्हारे जीवन में मैंने सुना है, जिस आदमी ने अमरीका में पहला बैंक खोला, | भी होती तो शायद तुम भी न बच सकते। उससे बाद में जब पूछा गया, कि तुमने यह बैंक खोला कैसे? | कोई भूखा है, और किसी ने चोरी कर ली; किसी की मां मर उसने कहा कि कोई काम-धाम न था मेरे पास, कुछ और न सूझा | रही है और दवा नहीं है, और किसी ने किसी का जेब काट मेरे लिए तो मैंने एक तख्ती लटका दी अपने घर के सामने, | लिया-तुम भी उसकी परिस्थिति में अपने को रखकर देखो, तो 'बैंक' उस पर लिख दिया। थोड़ी देर में देखा कि एक आदमी शायद तुम भी यही कर लेते। 672 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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