Book Title: Jina Sutra Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 680
________________ जिन सूत्र भागः 1,SHREE उसे स्वीकार कर लेना। करवा रहे हो; क्योंकि हमारे यहां सदा से होता चला आया है! चौथा चरण है: अमूढ़दृष्टि। यह बहुत क्रांतिकारी चरण है। । और सत्यनारायण की कथा में सत्य जैसा कुछ भी नहीं है। मगर महावीर ने कहा है, दुनिया में तीन तरह की मूढ़ताएं हैं, भ्रांत हो रही है कथा! क्योंकि न करवायें, तो तुम अकेले पड़ जाते हो, दृष्टियां हैं। एक मूढ़ता को वे कहते हैं, लोकमूढ़ता। अनेक भीड़ से टूटते हो। लोग अनेक कामों में लगे रहते हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि समाज और भीड के साथ हम जड़े रहते हैं—भय के कारण। अकेले ऐसा करता है क्योंकि और लोग ऐसा करते हैं। उसको महावीर होने में डर लगता है। मंदिर तुम चले जाते हो-पिताजी भी जाते कहते हैं: लोकमूढ़ता। क्योंकि सभी लोग ऐसा करते हैं, थे; पिताजी के पिताजी भी जाते थे। उनसे भी अगर पूछा जाता, इसलिए हम भी करेंगे!...सत्य का कोई हिसाब नहीं है-भीड़ वे कहते, 'हम क्या करें, हमारे पिताजी जाते थे, उनके पिताजी का हिसाब है। तो यह तो भेड़चाल हुई। जाते थे।' ऐसे पंक्तिबद्ध मूढ़ता चलती रहती है। एक स्कूल में एक शिक्षक ने पूछा एक छोटे बच्चे से कि तुम्हारे हिम्मत होनी चाहिए साधक में, कि वह इस पंक्ति के बाहर घर भेड़ें हैं, तो अगर तुमने अपने आंगन में दस भेड़ें बंद कर रखी निकल आये। अगर उसे ठीक लगे तो बराबर करे, लेकिन ठीक हैं और उनमें से एक छलांग लगाकर बाहर निकल जाये, तो लगना चाहिए स्वयं की बुद्धि को। यह उधार नहीं होना चाहिए। कितनी पीछे बचेंगी? उस बच्चे ने कहा : एक भी नहीं। उस और अगर ठीक न लगे, तो चाहे लाख कीमत चुकानी पड़े तो भी शिक्षक ने कहा, 'तुम्हें कुछ गणित का हिसाब है? मैं कह रहा हूं करना नहीं चाहिए, हट जाना चाहिए। दस अंदर हैं, और एक छलांग लगाकर निकल जाये तो कितनी तुम झुक जाते हो पत्थर की मूर्ति के सामने जाकर, क्योंकि और बचेंगी?' उसने कहा, 'गणित की तुम समझो, भेड़ों को मैं सब भी कहते हैं कि भगवान की मूर्ति है। और तुम कभी भी नहीं अच्छी तरह जानता हूं। एक निकल गई तो सब निकल गईं। सोचते कि भगवान की मूर्ति है! भगवान की कोई मूर्ति हो सकती गणित का मुझे भला पता न हो, लेकिन भेड़ों का मुझे पता है।' है? क्योंकि समस्त ज्ञानी कहते हैं, वह अमूर्त, निराकार, भेड़चाल! भीड़ के पीछे चले चलना! यह भरोसा रखकर कि निर्गुण, अनंत, असीम-उसकी मूर्ति हो सकती है? हां, अगर जहां सब जा रहे हैं ठीक ही जा रहे होंगे। और मजा यह है कि | तुम्हें लगता हो, तुम्हारी अंतरप्रज्ञा कहती हो, हां, हो सकती है, बाकी सबका भी यही भरोसा है। वह जो तुम्हारे पड़ोस में चल तुम्हारे भाव में लगता हो कि हां, है—तो झुकना। फिर चाहे रहा है, तुम्हारी वजह से चल रहा है। कि तुम जा रहे हो तो ठीक | सारा संसार कहे कि नहीं है तो फिक्र मत करना। तो महावीर यह ही जा रहे होओगे; और तुम जा रहे हो उसकी वजह से कि वह | नहीं कह रहे हैं, वे तुम्हें कोई स्पष्ट निर्देश नहीं दे रहे हैं कि तुम जा रहा है तो ठीक ही जा रहा होगा। इसको महावीर कहते हैं: | क्या करो। वे इतना ही कह रहे हैं कि जो भी तुम करो वह तुम्हारी लोकमूढ़ता। अंतःप्रज्ञा की साक्षी से किया गया हो, बस। वे यह नहीं कह रहे और सत्य की तरफ केवल वही जा सकता है जो भेड़चाल से हैं कि तुम मस्जिद जाओ कि मंदिर जाओ कि गुरुद्वारा कि चर्च। ऊपर उठे; जो धीरे-धीरे अपने को जगाए और देखने की चेष्टा इससे कोई प्रयोजन नहीं है। जो तुम्हारी अंतःप्रज्ञा कहे, जो करे कि जो मैं कर रहा हूं, वह करना भी था या सिर्फ इसलिए कर | तुम्हारा बोध कहे, वही तुम करना; उससे अन्यथा मत करना, रहा हूं कि और लोग कर रहे हैं! अन्यथा वह लोकमूढ़ता होगी। अकसर तुम कहते पाये जाते हो कि हमारे घर में तो यह सदा से दूसरी मूढ़ता को उन्होंने कहा—देवमूढ़ता, कि लोग देवताओं चला आया है। हमारे पिता भी करते थे, उनके पिता भी करते थे, की पूजा करते हैं। कोई इंद्र की पूजा कर रहा है कि इंद्र पानी इसलिए हम भी कर रहे हैं। तुमने कभी यह भी पूछा कि इसके गिरायेगा; कि कोई कालीमाता की पूजा कर रहा है कि बीमारी दूर करने का कोई प्रयोजन है, कोई लाभ है? इसके करने से जीवन | हो जायेगी। लोग देवताओं की पूजा कर रहे हैं। में कुछ संपदा, शांति, आनंद का अवतरण होता है? नहीं, | महावीर कहते हैं, देवता भी तो तुम्हारे ही जैसे हैं! यही तुम्हारे पिताजी भी सत्यनारायण की कथा करवाते थे, तुम भी वासनायें, यही जाल, यही जंजाल उनका भी है। यही [ 670 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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